-अशोक मिश्र
सुनो!
मैं भी गाना चाहता हूं प्रेम गीत
गुनगुनाना चाहता हूं प्रणय ग्रंथ के अनपढ़े पृष्ठों को
महसूस करना चाहता हूं तुमको छूकर
मुझ तक आई सुगंधित हवाओं को
सुलझाना चाहता हूं तुम्हारी
सुलझी-अनसुलझी अलकों के
कठिन से कठिन समीकरण
कुंजों, उपवनों में हौले-हौले
बहती बासंती मादक बयार
मानो मदहोश कर देना चाहती है संपूर्ण संसृति को
उस पर तुम्हारा हंसना, खिलखिलाना, केलि करना
द्विगुणित कर देता है बसंत की मादकता को
पीपल की डालियों पर उगे नव कोपलों को
देख चकित हो रहे हैं तुम्हारे नयन
झलक रहा है तुम्हारी आंखों में उल्लास
नवकोपलों के स्वागत का
और मैं
भूल नहीं पा रहा हूं जमीन पर पड़े
सूखे, कटे-फटे, कुम्हलाए पीपल के पत्तों को
मानो, विदा लेते समय वे मुझे सौंप कर
जा रहे हों अपनी विरासत, संघर्षपूर्ण इतिहास
इन पीपल के मुरझाए और पीले पड़ गए पत्ते
मानो कह रहे हों
अभी नहीं आया समय प्रणय गीत गाने का।
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