अभी कुछ ही दिन पहले की बात है, जब सिमडेगा से एक ख़बर आई कि वहां एक औरत को डायन-बिसाही कहकर मार दिया गया। कितने अफ़सोस की बात है कि आज जब हम मंगल ग्रह पर बस्तियां बसने की बात कर रहे हैं, वहीं महिलाओं के साथ इस तरह के अत्याचार हो हैं। कुछ लोग इस बात को स्त्री विमर्श से जोड़ने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि यह विशुद्ध रूप से अंध विश्वास का मामला है। दरअसल जब तक इस अंध विश्वास के खिलाफ हम तन कर नहीं खड़े हो जाते, तब तक महिलाओं के साथ ही नहीं पुरुषों के साथ भी अन्याय होते रहेंगे। हाँ, महिलाओं के साथ जिस तरह के एक हो रहे हैं, उनके कारणों की जाँच करनी बहुत आवश्यक है। आजकल स्त्री विमर्श के नाम पर जो जुगाली की जा रही है, उससे महिलाओं का कोई भला होने वाला नहीं है। अगर महिलाओं को वास्तव में उनका अधिकार देना है, तो सबसे पहले उन्हें उनका आर्थिक अधिकार देना होगा। आर्थिक अधिकार के बिना अन्य किसी प्रकार के अधिकार का कोई मतलब नहीं है।
अगर हम आजादी से पहले की बात करें, तो ब्रिटिश शासन काल से पूर्व आदमी और औरत को किसी तरह की स्वतंत्रता नहीं थी। हम अंग्रेजों के गुलाम थे, लेकिन सन १९७४ में पुरुषों को राजनीतिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता भी मिली। वहीं महिलाओं को सिर्फ़ सांस्कृतिक और राजनीतिक स्वतंत्रता ही मिली। उन्हें उनकी आर्थिक स्वतंत्रता से वंचित रखा गया। राजनीति और समाज शास्त्र का एक बहुत सामान्य सा सिद्धांत है की उत्पादन के साधनों पर जिस वर्ग या समुदाय का कब्जा होता है, समाज में उसी वर्ग या समुदाय का प्रभुत्व होता है। कहा जाता है की बहुत पहले दुनिया में एक ऐसी भी व्यवस्था थी, जिसमें स्त्री और पुरूष को समान अधिकार मिले हुए थे। इसे हम matriarchal व्यवस्था कहते हैं। इस व्यवस्था के अंतर्गत न तो कोई किसी का गुलाम था और न ही कोई किसी की दासी। लेकिन इस व्यवस्था में औरत सिर्फ किचन या शयनागार तक ही सीमित नहीं थी। वह भी प्रकृति के खिलाफ होने वाले संघर्ष में पुरुषों के साथ बराबर की भागीदार थी। वह भी पुरुषों के समान आखेट करने जाती थी। उत्पादन के साधनों यानि शिकार करने के औजार, खाना पकाने के बर्तन आदि पर उसका बराबर का अधिकार था। शिकार के बाद लौटने पर भी वह पुरुषों के समान खाना पकाने की तैयारी करती थी। खाना बनाने में पूरी मदद करती थी। इस वजह से किए गए शिकार पर उसका भी पूरा अधिकार था। हाँ, बच्चों के पालन-पोषण का जिम्मा जरूर उसके पास अतिरिक्त था। इस कारण बच्चों पर अधिकार भी उसीका ज्यादा था। लेकिन जैसे-जैसे वह प्रकृति के खिलाफ होने वाले संघर्षों से पीछे हटती गयी, उत्पादन के साधनों पर से उसका अधिकार घटता गया। तत्कालीन समाज में उत्पादन के साधन ही निजी संपत्ति थे।
अगर हम आजादी से पहले की बात करें, तो ब्रिटिश शासन काल से पूर्व आदमी और औरत को किसी तरह की स्वतंत्रता नहीं थी। हम अंग्रेजों के गुलाम थे, लेकिन सन १९७४ में पुरुषों को राजनीतिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता भी मिली। वहीं महिलाओं को सिर्फ़ सांस्कृतिक और राजनीतिक स्वतंत्रता ही मिली। उन्हें उनकी आर्थिक स्वतंत्रता से वंचित रखा गया। राजनीति और समाज शास्त्र का एक बहुत सामान्य सा सिद्धांत है की उत्पादन के साधनों पर जिस वर्ग या समुदाय का कब्जा होता है, समाज में उसी वर्ग या समुदाय का प्रभुत्व होता है। कहा जाता है की बहुत पहले दुनिया में एक ऐसी भी व्यवस्था थी, जिसमें स्त्री और पुरूष को समान अधिकार मिले हुए थे। इसे हम matriarchal व्यवस्था कहते हैं। इस व्यवस्था के अंतर्गत न तो कोई किसी का गुलाम था और न ही कोई किसी की दासी। लेकिन इस व्यवस्था में औरत सिर्फ किचन या शयनागार तक ही सीमित नहीं थी। वह भी प्रकृति के खिलाफ होने वाले संघर्ष में पुरुषों के साथ बराबर की भागीदार थी। वह भी पुरुषों के समान आखेट करने जाती थी। उत्पादन के साधनों यानि शिकार करने के औजार, खाना पकाने के बर्तन आदि पर उसका बराबर का अधिकार था। शिकार के बाद लौटने पर भी वह पुरुषों के समान खाना पकाने की तैयारी करती थी। खाना बनाने में पूरी मदद करती थी। इस वजह से किए गए शिकार पर उसका भी पूरा अधिकार था। हाँ, बच्चों के पालन-पोषण का जिम्मा जरूर उसके पास अतिरिक्त था। इस कारण बच्चों पर अधिकार भी उसीका ज्यादा था। लेकिन जैसे-जैसे वह प्रकृति के खिलाफ होने वाले संघर्षों से पीछे हटती गयी, उत्पादन के साधनों पर से उसका अधिकार घटता गया। तत्कालीन समाज में उत्पादन के साधन ही निजी संपत्ति थे।
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