Friday, February 20, 2009

सिर्फ़ विवेक के लिए


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  1. पुस्तक की भूमिका पढ़कर आँखें भर आईं और उन दिनों के दृश्य सिलसिलेवार उभरने लगे, जब हम दोनों हर तरह का इल्म हासिल कर लेने को कहाँ-कहाँ नहीं भटके. लेकिन जो हमारी जिद थी, हमने वह सबकुछ हासिल किया, पचहत्तर नामों से लिखने वाले अशोक मिश्र ने अपनी कलम को मांजा और परिणाम सामने है. उन दिनों भी उसकी व्यंग्य की धार इतनी पैनी थी कि लखनऊ के मठाधीशों में खलबली मच गयी थी. कई तालिबानी साहित्यकारों ने तो उसके खिलाफ देख लेने का फतवा भी जारी कर दिया था. मैंने तो पहले पत्रकारिता में आने के कारण दैनिक स्वतंत्र भारत में उसके व्यंग्य छापकर मित्रता का ही फ़र्ज़ नहीं निभाया था, एक ऐसे रचनाकार को स्थान दिया था, जिसकी लेखनी की धार बताती थी कि वह देश का होने वाला बड़ा व्यंग्यकार है. अशोक मिश्र ने भूमिका में अपने बारे में कुछ भी नहीं लिखा है, जबकि उस संघर्ष के दौर के इतने अध्याय हैं, जिनको समेटकर एक पुस्तक बन सकती है. उसके इस बड़प्पन को मैं धन्यवाद भी नहीं कहूँगा कि उसने इस दौर में भी मुझे याद रखा.

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