Tuesday, August 31, 2010

म्युनिसपैल्टी का दफ्तर था उप्र हिंदी संस्थान


आगरा निवासी प्रख्यात कवि और उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के पूर्व उपाध्यक्ष सोम ठाकुर किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनकी रचनाएं कवि सम्मेलनों में बड़े सम्मान के साथ सुनी जाती हैं। सन 1997 में उनकी पुस्तक ‘एक ऋचा पाटल को’ को निराला पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। पेश है हिंदी की दशा और दिशा के साथ-साथ उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं पर अशोक मिश्र से हुई बातचीत के संपादित अंश।
एक पारंपरिक सवाल से बातचीत की शुरुआत की जाए। आपको अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है?

-मैं भी वही पारंपरिक जवाब दे रहा हूं। एक पिता को अपनी कौन सी संतान सबसे प्रिय है, यह कह पाना सबसे कठिन है। लेकिन फिर भी इतना कहूंगा कि सन 55 में मेरा गीत ‘लौट आओ मांग के सिंदूर की सौगंध तुमको, नैन का सावन निमंत्रण दे रहा है’ और सन 57 में लिखा गीत ‘जाओ पर संध्या के संग लौट आना तुम, चांद की किरन निहारते न बीत जाये रात’ काफी सुने गए। लोग कवि सम्मेलनों में अक्सर इसे सुनाने को कहते थे। सन 1957 में दिल्ली के लाल किले में एक कवि सम्मेलन हुआ था। इसमें चालीस कवि थे। इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने किया था। इसमें हरिवंश राय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर जैसे कई ख्यातिप्राप्त कवि थे। इस कवि सम्मेलन में मुझे सिर्फ दो गीत सुनाने पड़े। बाकियों ने एक ही रचनाएं सुनार्इं। मैं युगधर्म से जुड़ी रचनाएं करता रहा। सन 62 में चीन का हमला हुआ, तो मैंने लिखा,‘धरती जागी आकाश जगा, जागे कुबेर कंगाल जगे।’ सन 65 में पाकिस्तान का हमला हुआ, तो मेरा गीत ‘सागर चरण पखारे गंगा शीश चढ़ावे सौ-सौ नमन करूं मैं भइया’ बहुत प्रसिद्ध हुआ। उन दिनों पारंपरिक गीतों के साथ नवगीत भी पढ़ता था।

आज जब संचार माध्यमों और सरकारी योजनाओं के जरिये हिंदी को इतना बढ़ावा दिया जा रहा है। उस पर भी क्या हिंदी साहित्य और भाषा की स्थिति संतोषजनक है?

-हिंदी की दशा-दिशा कतई संतोषजनक नहीं है। मैं तो तब मानूंगा, जब हिंदी भाषा किसी बेरोजगार को रोजी-रोटी मुहैया कराये। हिंदी भाषा के विकास का ढिंढोरा लाख पीटा जाये, लेकिन सब बेकार। अब आप कहेंगे कि कंप्यूटर आ जाने से हिंदी के प्रचार-प्रसार का मार्ग काफी सुगम हो गया है। लेकिन कंप्यूटर के उपयोग का माध्यम क्या है? अंग्रेजी न...और अंग्रेजी भाषा रोजगार दिलाती है, इसलिए इसका प्रचार प्रसार निरंतर हो रहा है। हिंदी भाषा को भी ऐसा ही होना होगा।

जब आप उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष थे, तो आपने हिंदी के विकास के लिए क्या किया? कौन-कौन सी योजनाएं चलार्इं? उनकी हिंदी भाषा या साहित्य के विकास में क्या भूमिका रही?

-जब मैंने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का कार्यभार संभाला, उससे पहले 50-50 हजार रुपये के पुरस्कार दिये जाते थे। मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह से कहकर उसकी रकम बढ़वाई। यश भारती पुरस्कार एक लाख रुपये का दिया जाता था। मैंने मुलायम सिंह से कहा कि एक लाख रुपये के पुरस्कार तो कई हैं। यश भारती पुरस्कार पांच लाख रुपये का होना चाहिए। और वही हुआ। हिंदी संस्थान की लाइब्रेरी को पब्लिक लाइब्रेरी बनाया। सबके लिए लाइब्रेरी के द्वार खोले। हिंदी संस्थान की इमारत काफी खस्ताहाल थी, 75 लाख रुपये खर्च करके उसकी दशा सुधारी। सोलह लाख रुपये खर्च करके लिफ्ट लगवाई। पहले हिंदी संस्थान म्युनिसपैल्टी का दफ्तर लगता था, मैंने उसे फाइव स्टार होटल जैसा बनाया। हिंदी भाषी प्रदेशों के साहित्यकारों को अहिंदी भाषी प्रदेशों में ले गया। वहां परिचर्चाएं, सेमिनार और गोष्ठियां करार्इं। गैर हिंदी भाषी प्रदेशों के रचनाकारों को हिंदी प्रदेशों में लाकर उनका हिंदी के रचनाकारों से परिचय कराया। गैर हिंदी भाषी प्रदेशों के लोग चाहते हैं कि हिंदीतर भाषी प्रदेश का रचनाकार कहा जाये। लेकिन अब हिंदी संस्थान में कुछ भी नहीं हो रहा है।

इमारतों को सुधारने या रचनाकारों की पुरस्कार राशि बढ़ा देने से हिंदी भाषा या साहित्य का क्या भला हुआ?

-क्यों...हिंदी भाषी रचनाकारों का अहिंदी भाषी प्रदेशों से परिचय कराने और दोनों तरह के प्रदेशों में कार्यक्रम कराने से हिंदी भाषा का विकास नहीं हुआ! और भी बहुत से काम मैंने अपने कार्यकाल में किये जिनसे हिंदी साहित्य का उन्नयन हुआ। सुना है कि उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में इन दिनों तो कुछ भी नहीं हो रहा है। हिंदी के विकास की कोई सार्थक पहल नहीं हो रही है।

अच्छा यह बताएं...मुलायम सिंह की सरकार ने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का उपाध्यक्ष आपको ही क्यों चुना? किसी और को क्यों नहीं?

-इसका जवाब तो वे ही बेहतर दे सकते हैं। मैं मुलायम सिंह या समाजवादी पार्टी के पास नहीं गया था। वे ही आये थे मुझे बुलाने।कुछ साहित्यकार मुलायम सिंह की सरकार के समय में कैबिनेट मंत्री का दर्जा पा गये। जैसे कि आप, गोपालदास नीरज...इससे साहित्य का कितना भला हुआ? सपा का ठप्पा लगने से आप कितना संतुष्ट हैं?-देखिये...सपा के शासनकाल में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का उपाध्यक्ष बनना ठप्पा लगवाने जैसा नहीं है। नीरज जी की सपा से नजदीकी का कारण उनका इटावावासी होना है। मुलायम सिंह और गोपालदास नीरज काफी पहले से एकदूसरे के निकट रहे हैं। इसका कोई राजनीतिक कारण नहीं रहा। उनका कोई कार्यक्रम लखनऊ में हो रहा है और मैं वहां मौजूद रहा, तो मुलायम सिंह जी ने मुझे मंच पर बुला लिया। इसका कोई राजनीतिक निहितार्थ नहीं तलाशा जाना चाहिए।

इससे आपको कोई नुकसान हुआ?

-हां...नुकसान हुआ। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का उपाध्यक्ष बनने से पहले मैं लखनऊ महोत्सव में बुलाया जाता था। जब तक उपाध्यक्ष रहा, बुलाया जाता रहा। लेकिन जब से मायावती की सरकार बनी है, लखनऊ महोत्सव वालों ने बुलाना बंद कर दिया है। उसके आयोजक बदल गये। उन्होंने मुझ जैसे कई साहित्यकारों को बुलाने की जरूरत नहीं समझी। यह नुकसान तो हुआ न...। वैसे मेरा मानना है कि राजनीतिक दलों से साहित्यकार को दूर ही रहना चाहिए। साहित्यकार तटस्थ रहकर जितना अच्छा लिख सकता है, उतना अच्छा किसी राजनीतिक दल से जुड़कर नहीं। इससे साहित्यकार का व्यक्तिगत नुकसान होता है।

आज कविता का बाजार से रिश्ता टूट चुका है। कहने का मतलब यह है कि आज प्रकाशक कविता छापने को तैयार नहीं हैं। इसके लिए आप दोषी किसे मानते हैं? प्रकाशक को, कवियों को या पाठकों को।

-सबसे बड़ा दोषी तो बाजार व्यवस्था है जिसने काव्य को भी वस्तु बना दिया। आज प्रकाशक कविता का बाजार देखते हैं। उनकी अपनी चयन समितियां हैं, इन समितियों के सदस्य तय करते हैं कि प्रकाशक को पुस्तक छापनी चाहिए या नहीं। स्वयं प्रकाशक तो काव्य की बारीकियों को समझता नहीं है। वह दूसरों पर निर्भर रहता है। समिति सदस्य बाजार को ध्यान में रखते हैं, ऐसे में वे कवियों की पुस्तकों का प्रकाशन क्यों करेंगे। जो किताबें छपती भी हैं, उनकी कीमत बहुत ज्यादा होती है। सामान्य पाठकों की पहुंच से बाहर। हमारे रचनाकार बंधु भी ऐसी स्थिति के लिए कम दोषी नहीं हैं। वे आम जन में काव्य का प्रसार करने की जगह मंचीय होना ज्यादा उपयुक्त समझते हैं। मंचीय कवि का मतलब है जनता द्वारा स्वीकृत कवि। लेकिन आजकल तो मंचीय कवि का तात्पर्य आयोजक द्वारा स्वीकृत कवि हो गया है।

मंचों पर आजकल या तो चुटकुलेबाजी की जा रही है, कविता के नाम पर फूहड़ तुकबंदी? क्या आप इससे अपना सामंजस्य बिठा पाते हैं?

-यह स्थिति काफी दुखद है। इससे कविता का भला नहीं होगा। इसके लिए कवि सम्मेलनों के आयोजक दोषी हैं। यह सही है कि इन दिनों मंचों पर या तो नारेबाजी होती है किसी सियासी दल के समर्थन में या फिर फूहड़ चुटकुलेबाजी। ऐसा करने वाले कवियों को आयोजक पसंद करते हैं क्योंकि उनकी दुकान ऐसे ही कार्यक्रमों से चलती है। आयोजक तो कवियों को पैसा ही इसी बात का देते हैं कि वे रंग जमा देंगे। आयोजकों के अपनी-अपनी पसंद के कवि हैं। पैसे ने कवियों का स्तर गिरा दिया है। पहले शैक्षणिक संस्थाओं द्वारा कार्यक्रम आयोजित किये जाते थे। स्कूल-कालेजों में नाटक, कविता, कहानी और सामाजिक मुद्दों पर कार्यक्रम होते थे, सेमिनार और बहस गोष्ठियां आयोजित की जाती थीं। छात्र यूनियनें इन कार्यक्रमों का नेतृत्व करती थीं। लेकिन चौधरी चरण सिंह ने अपने शासनकाल में यूनियनें क्या खत्म की, कार्यक्रम होने बंद हो गये। इसका नतीजा यह हुआ कि कार्यक्रम आयोजकों की बन आयी।

कवियों में अब बेहतर काव्य सृजन का दम भी तो नहीं दिखायी देता है? निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध जैसे कवियों का नितांत अभाव है।

-हां, यह बात सही है। निराला, मुक्तिबोध नहीं पैदा हो रहे हैं। लेकिन कुछ लोग अच्छा लिख रहे हैं। मैं पहले भी कह चुका हूं कि कविता तभी प्रसिद्ध होती है, जब वह उपयोगी होगी। अंग्रेजों की भाषा पहले फ्रेंच थी, लेकिन जब जॉन मिल्टन, विलियम शेक्सपियर जैसे महान कवियों ने अंग्रेजी में रचनाएं की, तो उन्हें भी अंग्रेजी अपनानी पड़ी। भाषा के उन्नयन के लिए साहित्य का श्रेष्ठ होना आवश्यक है। इन दिनों हंसाने वाली कविताएं ज्यादा लिखी जा रही हैं, लेकिन गंभीर साहित्य का अभाव हिंदी प्रेमियों को स्पष्ट दिखायी देता है। हां, गद्य में काम ज्यादा हुआ है। श्रीलाल शुक्ल, गोपाल चतुर्वेदी जैसे साहित्यकार बढ़िया काम कर रहे हैं।

इसका कारण क्या है?

-इसका कारण यह है कि लोग पढ़ना नहीं चाहते। हम लोगों ने जब इस क्षेत्र में कदम रखा था, तो हमारे बुजुर्ग बार-बार खूब पढ़ने को कहते थे। दूसरे कवियों की रचनाएं पढ़नी पड़ती थीं। उर्दू में तो एक परंपरा ही है कि वे अपने शार्गिद को सात-आठ सौ गजलें याद करा देते हैं, ताकि वे मुहावरों और कहावतों से परिचित हो जायें। वे भाषा का स्वरूप समझ लें। उर्दू में तो आज भी ‘इस्लाह’ और ‘सलाह’ के बिना मंचों पर उतरने की इजाजत नहीं मिलती। लेकिन पंडित हरिशंकर शर्मा अकसर कहा करते थे कि हमारे यहां तो ‘एक इंच काता और लेकर दौड़े जुलाहे के पास, कपड़ा बुन दो’ वाली स्थिति है। एक कविता क्या लिखी कि दौड़ लिए मंचों की ओर। यह स्थिति काफी दुखद है।


कृते गीत-स्वतंत्रता उवाच
मैं नहीं आयी यहां, बहकी हवाओं की तरह
पीढ़ियों के सर चढ़े बलिदान ले आये यहां।

जन्म तो मेरा हुआ संकल्प के ही वंश में
ये सहज संयोग है, मैं शक्ति के हाथों पली
खुशबुओं के घर बसाने थे, मुझे हर हाल में
दम-बदम मुझको खली है हर कली की बेकली
हो न हो स्वीकार तुमको, पर सचाई है यही
वे शहादत से जगे श्मशान ले आये मुझे।

पांव मेरे पड़ न पाये बंद गलियों में कभी
वास्ता कुछ भी नहीं मेरा उठी दीवार से
रास आ पाई न मुझको नफरतों वाली घुटन
मैं सदा फलती रही हूं प्यार की बौछार से
मजहबी कोहर न जिसकी राह पर छाया कभी

मंजिलों तक धूप के फरमान ले आये मुझे।

रह सकूंगी मैं न पलभर ध्वंस की चौपाल पर
कब सुहाया है मुझे ओछे समय का आचरण
लोग माने या न माने, शर्त मेरी है यही
कर सकेगा बस सृजन का पुत्र ही मेरा वरण
स्वार्थ की शैया बुलाती तो न मैं आती कभी
फांसियों पर झूलते अरमान ले आये मुझे।
कुछ कमी छोड़ी नहीं थी जाफरो-जयचंद ने
लोग थे, जो कारवां अपना नहीं रुकने दिया
वे निहत्थे ही लड़े हर बार अंधे जुल्म से
लाठियां खाते रहे, परचम नहीं झुकने दिया
देश आधा तन ढके आवाज देता था मुझे
वे अहिंसा सत्य के संधान ले आये मुझे।

बोल मत सिंहासनों से
बोल मत सिंहासनों से, वे अंधेरों से घिरे हैं
सूर्य का आकाश देगी सिर्फ मृगछाला तुझे

रोशनी के नाम कोई दिन न होगा
यह अनोखी त्रासदी है इस सदी की
ग्रंथ सारे दीमकों ने चाट डाले
अब न परिभाषा रही नेकी-बदी की
तू स्वयं में कुछ नहीं है, फैसला इस बात पर है-
किस तुला पर तौलता है तौलने वाला तुझे।

दीप होकर आंधियों के साथ रहना
इस सफर में आदमी की बेबसी है
भोर का संकल्प है संबल हमारा
जन्म से ही जिंजगी जिसमें कसी है
कंठ से स्वीकार ह ोगा जब गरल का आचमन तो-
धारनी होगी गले में शब्द की माला तुझे।

फूल तो चाहे अकेला ही खिला हो
पर चमन में शूल इकलौता नहीं है
जिंदगी तो है चुनौती पर चुनौती
मावसों से संधि समझौता नहीं
तू भले सात समंदर मुट्ठियों में बांध ले पर
चैन से रहने न देगी वक्त की ज्वाला तुझे।

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