Monday, January 23, 2012
भोजन-भजन करो भरि पेटा
Saturday, January 21, 2012
पूंजीवादी संसदीय चुनाव एक धोखा है

Tuesday, January 17, 2012
चार गो भतार ले के लड़े 'सतभतरी'
अशोक मिश्र
कल सुबह-सुबह मुसद्दीलाल गली में खुली पंसारी की दुकान के सामने मिल गए। ठंड में भी वे पसीने-पसीने हो रहे थे। उनकी हालत देखकर मुझे ताज्जुब हुआ। मैंने पूछा, 'अमां मियां! किसी मैराथन दौड़ से भाग लेकर आ रहे हैं क्या? इस उम्र में इतनी भागदौड़ अच्छी नहीं होती।'
मेरी बात सुनकर सांस को काबू में करते हुए मुसद्दीलाल बोले, 'चाय पत्ती खत्म हो गई थी। उसे लेने आया था। आओ, घर चलकर चाय पीते हैं।' मेरा हाथ पकड़कर उन्होंने घर की राह ली। घर में पहुंचकर बातचीत कब लोकगायक बालेश्वर के गीतों से जुड़ गई, पता ही नहीं चला। मुसद्दीलाल ने अचानक पूछ लिया, 'यार! बालेश्वर के एक गीत की लाइन है 'चार गो भतार ले के लड़े सतभतरी।' इसका क्या मतलब है। मैं कई दिनों से इस पर दिमाग खपा रहा हूं, लेकिन अर्थ है कि पकड़ में ही नहीं आ रहा है।'
मुसद्दीलाल के इस सवाल पर मैं ठिठक गया। बात ईरान की हो रही हो और कोई होनोलूलू के बारे में पूछ बैठे, तो किसी की भी बोलती बंद हो जाएगी। थोड़ी देर बाद मैंने समझाने का प्रयास किया, 'अगर इसका सीधा सादा राजनीतिक अर्थ निकाला जाए, तो यह है कि सात पतियों (यूपीए, एनडीए, वाम मोर्चा, तीसरा मोर्चा...जैसे गठबंधन) वाली सत्ता सुंदरी अपने चार पतियों को लेकर चुनाव मैदान में है। अब आपको तो यह मालूम ही है कि हमारे देश की सत्ता सुंदरी पिछले कुछ दशकों से एक भतारी (एक पार्टी की सरकार वाली) नहीं रह गई है। हर चुनाव के बाद कुछ पार्टियां गठबंधन बनाकर सत्ता सुंदरी के स्वामी बन जाते हैं। बाकी दल उसके प्रेमी की तरह सत्तारूढ़ दलों पर विभिन्न आरोप लगाकर संतोष कर लेते हैं।'
मुसद्दीलाल ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा, 'क्या इसका यह मतलब है? मैं तो इसे गाली समझ बैठा था।'
'देखो मियां! अगर तुम 'भतार' शब्द से बिदक रहे हो, तो यह शब्द संस्कृत के 'भर्तार' यानी भरण-पोषण करने वाला (पति, स्वामी) से आया है। यह शब्द अपने आप में बुरा नहीं है, लेकिन इसका उपयोग अगर गाली देने में किया जाए, तो बुरा जरूर है। इसमें शब्द का कोई दोष नहीं है। अब अगर किसी महिला से यह कहा जाए कि उसके एक पति है, तो यह महिला के लिए गौरव की बात होगी। लेकिन उसे अगर सतभतरी (सात पतियों वाली) कहा जाए, तो यह निश्चित रूप से गाली है। आज देश के जो हालात हैं, उसमें राजनीति खुद एक गाली है। जिस देश में लोकतंत्र की आड़ में गुंडे, बदमाश, भ्रष्टाचारी, बलात्कारी और देश से विश्वासघात करने वाले चुनाव लड़कर सत्ता का सुख भोगते हों, वहां की जनता के लिए यह विडंबना किसी गाली से कम है क्या? अब देखिए न! पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं, सभी सत्ता सुंदरी के स्वयंवर में जीतने की प्रत्याशा से मरे जा रहे हैं। वे हत्यारों, बलात्कारियों और भ्रष्टाचारियों को अपने साथ करने और उन्हें अपनी पार्टी का टिकट देकर जितवाने की हर संभ व कोशिश कर रहे हैं। एक भ्रष्ट और लुटेरी पार्टी का बदनाम मंत्री निकाले जाने पर दूसरी पार्टी में जाते ही दूध का धुला हो जाता है। ऐसे दौर में किसी सभ्य और ईमानदार व्यक्ति को नेता कह दीजिए, वह उसी तरह गुस्सा हो जाता है, जैसे उसे कोई भद्दी गाली दी गई हो।' मेरी इस बात से मुसद्दीलाल संतुष्ट हो गए और मैं चाय पीकर अपने घर चला आया।
Thursday, January 12, 2012
‘राग दरबारी’ को लेकर मलाल भी था
प्रख्यात उपन्यासकार एवं व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल नहीं रहे। उपन्यास ‘राग दरबारी’ के माध्यम से ग्रामीण जीवन में आने वाली मूल्यहीनता को जिस प्रामाणिकता और साहस के साथ श्री शुक्ल जी ने उकेरा, वह अद्वितीय है। पिछले दिनों स्व. श्रीलाल शुक्ल जी को लखनऊ के एक अस्पताल में 45वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था। श्रीलाल शुक्ल के व्यक्तित्व और कृतित्व पर ज्ञानपीठ अकादमी से जुड़े प्रख्यात साहित्यकार और व्यंग्यकार सुशील सिद्धार्थ से राष्ट्रीय साप्ताहिक ‘हमवतन’ के स्थानीय संपादक अशोक मिश्र ने बातचीत की। पेश हैं बातचीत के प्रमुख अंश...।
आप इन दिनों ज्ञानपीठ से जुड़े हुए हैं, इसलिए सबसे पहले स्व. श्रीलाल शुक्ल जी को दिए गए ज्ञानपीठ पुरस्कार से ही बात शुरू करते हैं। श्रीलाल जी को तब ज्ञानपीठ दिया गया, जब वे मरणासन्न हालत में थे। एक मरणासन्न युगदृष्टा साहित्यकार ऐसी हालत में न तो उस सम्मान से उत्साहित होकर कोई नवसृजन कर सकता है, न ही उस सम्मान का आनंद उठा सकता है। आपको यह सब कुछ गलत नहीं लगता है?
- आपका कहना बहुत हद तक सही है, लेकिन ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान करने की एक अपनी प्रक्रिया है। ज्ञानपीठ प्रदान करने वाली समिति किसी एक ही भाषा के साहित्यकारों पर विचार नहीं करती है। सभी भाषा के मूर्धण्य साहित्यकारों को ध्यान में रखना पड़ता है। एक बार जब किसी भाषा के साहित्यकार को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाता है, तो उस भाषा के साहित्यकारों पर तीन साल तक विचार नहीं होता। वरिष्ठ साहित्यकार और व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल और वरिष्ठ कहानीकार अमरकांत जी को एक साथ ज्ञानपीठ पुरस्कार इस बार इसीलिए दिया गया कि पता नहीं, अगली बार जब हिंदी भाषा के साहित्यकारों पर विचार हो और उस समय तक इन दोनों वरिष्ठ साहित्यकारों में से पता नहीं, कौन रहे और कौन न रहे। देखिए, आज श्रीलाल शुक्ल जी हम सबका साथ भी छोड़ गए।
क्या आपको नहीं लगता कि श्रीलाल शुक्ल जी या अमरकांत जी को ज्ञानपीठ देने में काफी देर हो गई?
- हिंदी भाषा में इतने अच्छे-अच्छे और कालजयी रचनाकार हैं कि उनके चयन में काफी देर हो जाती है। हां, यदि वरिष्ठ साहित्यकारों, अब श्रीलाल शुक्ल जी को ही उदाहरण लें, को अगर उन्हें कुछ साल पहले ज्ञानपीठ मिला होता, तो वे इसका सुख उठा सकते थे। आज से लगभग छह साल पहले जब श्रीलाल शुक्ल जी अस्सी साल के हुए थे, तभी से वे बीमार रहने लगे थे। कभी स्मृति लोप के शिकार हो जाते थे, तो कभी कोई दूसरी बीमारी हो जाती थी। यदि तभी उन्हें यह पुरस्कार मिल जाता, तो शायद अच्छा होता।
कहा जाता है कि श्रीलाल जी को तो पुरस्कार देने पड़े हैं। विभिन्न पुरस्कार देने वाली समितियां या संस्थाएं उन्हें सम्मानित करके अपना सम्मान बढ़ा गई हैं। आप इससे कितना सहमत हैं?
- ऐसी बात नहीं है। उनकी पहचान सिर्फ ‘राग दरबारी’ से ही नहीं है। अपनी पहली कृति ‘अंगद का पांव’ भी काफी चर्चित रही है। उनकी रचनाओं में भाषा और सरोकारों का जो लालित्य है, वह बेजोड़ है। तुलसी दास ने जीवनभर राम कथा कही, लेकिन ‘रामचरित मानस’ लिखकर उन्होंने जो हासिल किया, उसका कोई मुकाबला नहीं है। कोई पुरस्कार भी नहीं। जिस तरह तुलसी दास के ‘रामचरित मानस’, मुंशी प्रेमचंद के ‘गोदान’ का कोई साम्य नहीं है, उसी तरह श्रीलाल शुक्ल जी के ‘राग दरबारी’ का कोई साम्य नहीं है। यह व्यंग्य प्रधान उपन्यास लिखकर श्री शुक्ल जी ने जिन ऊंचाइयों को छू लिया था, वह अद्वितीय है। ‘राग दरबारी’ एक विलक्षण कृति है। उसमें ग्रामीण भारत का जो विवेचन हुआ है, वह अद्भुत है। अपने जीवनकाल में श्रीलाल शुक्ल जी ने बातचीत के दौरान कई बार इस बात पर खेद व्यक्त किया कि ‘राग दरबारी’ ने उनकी दूसरी कृतियों को दबा दिया। ‘मकान’, ‘विश्रामपुर का संत’ और ‘राग विराग’ जैसी रचनाओं की उतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी कि ‘राग दरबारी’ की हुई।
‘राग दरबारी’ का शिवपालगंज तो आज पूरे भारत में दिखाई देता है। देश के लगभग सभी गांवों की वही दशा है, जो लगभग 45-46 साल पहले लिखे गए व्यंग्य उपन्यास ‘राग दरबारी’ में श्रीलाल शुक्ल जी ने ‘शिवपालगंज’ नामक गांव को दर्शाया था।
- दरअसल, श्रीलाल शुक्ल जी भविष्य दृष्टा थे। ‘राग दरबारी’ का शिवपालगंज ही नहीं, बल्कि वे सभी संस्थाएं, जिनका चित्रण श्री शुक्ल जी ने किया था, आज भी उसी रूप में दिखाई देती हैं। चाहे वह स्कूल-कालेजों की राजनीति और भ्रष्टाचार हो, मठों-मंदिरों को लेकर चल रही उठापटक हो या फिर राजनीतिक संस्थाओं का विकृत रूप, सभी पक्षों पर शुक्ल जी ने सम्यक दृष्टि डाली और उसका जैसे एक्सरे करके सबके सामने पेश कर दिया।
व्यंग्य लेखन क्षेत्र में कभी हरिशंकर परसाईं, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल की त्रयी काफी मशहूर थी। दुर्भाग्य से त्रयी के तीनों मजबूत स्तंभ ढह चुके हैं। क्या आपको नहीं लगता है कि व्यंग्य क्षेत्र का सिंहासन आज खाली हो चुका है। उस सिंहासन का कोई वारिस दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहा है।
- देखिए, श्रीलाल शुक्ल जी के जाने के बाद एक रिक्तता तो जरूर आई है, लेकिन सिंहासन खाली होने जैसी बात नहीं है। पहले की तरह योजनाबद्ध और तैयारी करके व्यंग्य लिखने वाले साहित्यकार भी नहीं रहे। अखबारों में छिटपुट व्यंग्य लिखा जा रहा है, लेकिन इनमें लिखने वालों से कहा जाता है कि दो सौ-ढाई सौ शब्दों में लिखकर दीजिए। ऐसे में कोई क्या बढ़िया व्यंग्य लिखेगा! व्यंग्य पर भी एक व्यंग्य यह है कि आज का व्यंग्यकार ‘अटल जी के घुटने पर’, बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के अनशन पर लिख रहा है। ऐसे व्यंग्यकारों से आप क्या अपेक्षा रखते हैं। हरिशंकर परसार्इं जैसी विदग्ध दृष्टि, समाज और व्यंग्य की समझ, शरद जोशी जैसी चुटीली और पैनी भाषा आज के व्यंग्यकारों में दिखाई देती है क्या? व्यंग्य लिखने के लिए सबसे पहले साहस की जरूरत होती है। जब तक साहित्यकार में सच लिखने का साहस नहीं होगा, वह उच्च कोटि का साहित्यकार नहीं हो सकता। जहां तक व्यंग्य विधा की बात है, आज भी कुछ लोग अच्छा लिख रहे हैं। ज्ञान चतुर्वेदी, गोपाल चतुर्वेदी अच्छा लिख रहे हैं। दूधनाथ सिंह, रवींद्र कालिया की कहानियों में व्यंग्य भरपूर है। ये साहित्यकार इसे एक अलग विधा के रूप में न अपनाकर कहानियों में ही इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। हां, कुछ लोग इसे एक विधा मानकर लिख रहे हैं।
एक बार बातचीत के दौरान राजनीतिक दलों के संदर्भ में श्रीलाल शुक्ल जी ने कहा था कि मैं सड़क के बीच कुछ कदम हटकर बार्इं ओर खड़ा हूं। इसको आप किस रूप में लेते हैं?
- हां, यह बात उन्होंने अखिलेश से हुई बातचीत में कही थी। यह बातचीत तद्भव में छपी भी थी। बात यह है कि वे कभी किसी लेखक संघ या संगठन से जुड़े तो नहीं रहे, लेकिन जनवादी विचारधारा से उनका जुड़ाव जरूर था। आज के समय में जो भी लिख रहा है, वह वाम ओरिएंटेड होगा ही। उसका वाम विचारधारा से जुड़ाव नैसर्गिक है। लेकिन यह भी सही है कि किसी पार्टी का कार्ड होल्डर हो जाने से कोई लेखक नहीं हो जाता है। यदि ऐसा होता, तो आज हर गली-कूचे में लेखक ही लेखक दिखाई देते।
श्रीलाल शुक्ल जी का सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य उपन्यास ‘राग दरबारी’ है, तो दूसरी तरफ ‘आदमी का जहर’ जैसा जासूसी उपन्यास भी। इसके पीछे क्या कारण रहे होंगे?
- एक बार उनसे इस मुद्दे पर बातचीत हुई थी। श्री शुक्ल जी का कहना था कि ‘आदमी का जहर’ या ‘सीमाएं टूटती हैं’ जैसा उपन्यास मनहूसियत से मुक्ति पाने के लिए लिखे गए थे। वे कहते थे कि हिंदी साहित्यकारों की छवि ऐसी बना दी गई है कि वह जैसे कुछ और लिख ही नहीं सकता। ‘आदमी का जहर’ आप पढ़ें, तो उसमें भी किस्सागोई है। ‘राग दरबारी’ को सामने रखकर उनकी अन्य रचनाओं का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है।
अगर आप श्रीलाल जी के संपूर्ण साहित्य का गंभीर विवेचन करें, तो उसमें व्यक्ति, समाज और तंत्र किसी न किसी रूप में जरूर मौजूद है। इसके पीछे आप क्या कारण मानते हैं।
- संपूर्ण तंत्र को जिस तरह श्री लाल शुक्ल जी ने समझा, उनकी इस समझ की तारीफ करनी होगी। पहले आईपीएस और बाद में आईएएस अधिकारी होने के नाते भी तंत्र को उन्होंने बखूबी समझा। आज तंत्र या राजनीतिक भ्रष्टाचार पर लिखने वाले कितने लोग हैं और उनकी रचनाओं में कितनी गहराई है, यह सबके सामने है। लेकिन श्रीलाल शुक्ल जी यह समझते थे कि किसी गरीब व्यक्ति की अप्लीकेशन कहां-कहां अटकती है, कहां-कहां बिना कुछ लिए-दिए काम नहीं होगा? वे कुछ भी लिखने से पहले पूरी तैयारी करते थे, उसके बारे में पूरी जानकारी हासिल करते थे, तब कहीं जाकर वे लिखना शुरू करते थे। संयोग से उनका जीवन भी इस पूरे तंत्र के एक अंग के रूप में बीता। इसका उन्होंने अपने लेखन में भरपूर उपयोग किया।
Friday, January 6, 2012
जिहाल-ए-मस्ती, मकुन-ब-रंजिश
Ashok mishra
जिहाल-ए-मस्ती, मकुन-ब-रंजिश
बहार-ए-हिज्रां, बेचारा दिल है
सुनाई देती है जिसकी धड़कन
तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।
मेरे एक साथी ने इसका तर्जुमा (अनुवाद) कुछ इस तरह किया। एक प्रेमी-प्रेमिका हैं जो जिहाल-ए गांव में आए दिन मस्तियां करते रहते थे जिसकी वजह से मकुन गांव के लोग रंजिश रखने लगे। ऐसे में दोनों के मिलने-जुलने में बाधा पड़ने से बहार वाली रातें भी हिज्र (विरह) की रात बन गई और ऐसे में दोनों के दिल बेचारे मन मसोस कर रह गए। मिलने जुलने और मस्ती न हो पाने से प्रेमी युगल उच्चरक्तचाप के रोगी हो गए और एक दिन जब एक मेले में दोनों की मुलाकात हुई, तो वे यह नहीं समझ पाए कि यह दिल जो जोर-जोर से धड़क रहा है, वह किसका है? प्रेमी ने आखिर प्रेमिका से पूछ ही लिया कि यह धड़कन से सुनाई दे रही है, वह तुम्हारी है या मेरी।
मेरा ख्याल है कि आप भी इस तर्जुमा से सहमत होंगे।
Monday, January 2, 2012
मनरेगा बनाती करोड़पति
-अशोक मिश्र
मैं सुबह अखबार पढ़ने में तल्लीन था। तभी सुपुत्र चिंटू ने सवाल दागा, ‘पापा! अच्छा यह बताइए, लोग करोड़पति कैसे बन जाते हैं। चुनाव जीतने से पहले तक कुछ हजार या लाख रुपये की औकात रखने वाला विधायक, सांसद, मंत्री ऐसे कौन-से मंत्र का जाप करता है कि वह देखते ही देखते करोड़पति हो जाता है। इन लोगों के घर में पैसे का कोई पेड़ उग आता है क्या?’
मैंने अखबार एक ओर रखते हुए कहा, ‘बेटा! मनरेगा इन लोगों को करोड़पति बनती है।’ मेरे जवाब से चिंटू संतुष्ट नहीं हुआ। बोला, ‘पर पापा...अपने पड़ोस में रहने वाले मुसद्दीलाल अंकल भी तो मनरेगा कार्ड होल्डर हैं, लेकिन वे करोड़पति नहीं बने?’ मैंने उदासीन संप्रदाय के धर्मोपदेशक की तरह कहा, ‘बेटा, यह बात मैं नहीं कहता, सरकार और सरकारी आंकड़ा कहता है। अब देखो न! आज ही अखबार में एक सरकारी विज्ञापन छपा है। इसके मुताबिक कोई सुनील कुमार हैं जो पहले बेरोजगार थे। मनरेगा के तहत कंप्यूटर आपरेटर बनते ही करोड़पति हो गए।’
‘तो फिर मुसद्दीलाल अंकल क्यों नहीं करोड़पति बने?’ बेटा कारण जाने को पूरी तरह उत्सुक था, ‘और फिर अफसर-वफसर, सांसद-विधायक, मंत्री-संतरी कैसे करोड़ों में खेलने लगते हैं।’
‘तुम्हारे मुसद्दीलाल अंकल ने मेहनत नहीं की होगी। बिना मेहनत किए इस दुनिया में कुछ भी हासिल नहीं होता। अभी तुम जिन लोगों की बात कर रहे थे, वे कितनी मेहनत करते हैं, मालूम है? पहले मनरेगा के तहत अपना नाम रजिस्टर पर दर्ज करवाते हैं। कार्ड होल्डर बनते हैं। फिर जमीन खोदते हैं। गर्मी हो, बरसात हो या कड़ाके की ठंड, हानि-लाभ की परवाह किए बिना ये अनवरत कार्य करते रहते हैं। इन्हें अगर जमीन खोदने का मौका मिले, तो यह नहीं देखते कि जमीन कहां की है? उत्तर प्रदेश की है या महाराष्ट्र की। बंगाल की है या केरल की। एकदम साधु भाव से जमीन खोदते रहते हैं। इन्हें कभी भाषा, प्रांत या जाति के नाम पर लड़ते देखा है? इनका एक मात्र ध्येय होता है कि किसी भी तरह करोड़पति बनना है। इनकी आंख अर्जुन की तरह भ्रष्टाचार की कड़ाही पर टंगी मछली पर टिकी होती है। भले ही उसके लिए कितनी भी मेहनत करनी पड़े। ये मेहनत करने से कभी पीछे नहीं हटते।’ मैं अपने कुलदीपक चिंटू को समझा रहा था।
‘लेकिन लोगों को लड़ाते तो हैं?’ चिंटू का अगला सवाल था।
मैंने बेटे को समझाया, ‘बेटा! ये अपनी कमाई बढ़ाने में इतने तल्लीन रहते हैं कि इन्हें फालतू बातें सोचने या करने का मौका ही नहीं मिलता है। अच्छा मान लो कि अपनी मेहनत और लगन से करोड़पति बनने वाले ये लोग किसी से कहें कि आपस में लड़ो, तो क्या इसमें उनका कोई कुसूर है? यह तो लोगों की नासमझी और बेवकूफी है कि वे किसी के कहने पर लड़ पड़ते हैं।’ मुझे लगा कि मेरी बात बेटे की समझ में आ रही है। मैंने अपनी बात अच्छी तरह से समझाने के इरादे से कहा, ‘जो लोग मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, अधिकारियों, क्लर्कों और चपरासियों के करोड़पति-अरबपति बनने पर चिढ़ते हैं, कुढ़ते हैं या हो-हल्ला मचाते हैं, वे या तो नादान हैं या फिर काहिल और कामचोर। लूट-खसोट, भ्रष्टाचार जैसी बातें वही करते हैं जो कुछ नहीं कर सकते। ऐसे लोग अपने परिवार पर ही नहीं, देश-प्रदेश पर बोझ होते हैं। अरे, जो आदमी एक छोटा-सा भ्रष्टाचार नहीं कर सकता, वह क्या खाक समाजसेवा करेगा। जो करोड़पति या अरबपति होगा, वही किसी को दस-बीस हजार या लाख की मदद करेगा। जिसके पास फटी गुदड़ी होगी, वह क्या खाक किसी को सुख दे पाएगा। इसलिए बेटा! खूब पढ़ो या नहीं, लेकिन मनरेगा कार्ड होल्डर होकर सुनील कुमार की तरह करोड़पति बन जाओ, मेरी और तुम्हारी मम्मी की यही इच्छा है।’ बेटे चिंटू ने मेरे पैर छूकर कहा, ‘पापा! आपका आशीर्वाद और मार्गदर्शन मिलता रहा, तो यह मनरेगा एक दिन जरूर मुझे करोड़पति बनाएगी।’
(व्यंग्यकार साप्ताहिक ‘हमवतन’ के स्थानीय संपादक हैं)