
Monday, February 27, 2012
मीका को भिजवाऊंगी कालापानी: राखी सावंत

माई नेम इज सनी...
Tuesday, February 21, 2012
भ्रष्टाचार के ‘ब्लैक होल्स’
Friday, February 17, 2012
अथ श्री जूता-चप्पल पुराण
-अशोक मिश्र
‘चप्पल या जूता आपको एक सामान्य सा शब्द लगता होगा, लेकिन अगर आप गौर करें, तो यह शब्द मानव सभ्यता के विकास की प्रक्रिया से जुड़ा हुआ नजर आएगा। संस्कृत में इसे ‘पदत्राण’ कहते हैं। इसका अर्थ ‘पैरों को मुसीबत से मुक्ति दिलाने वाला’ है। किंवदंती है कि एक बार देव और दानव अपना पुश्तैनी वैर-भाव भुलाकर जगतपिता ब्रह्मा के पास पहुंचे और कहा, ‘भगवन! शिकार करते या कहीं आते-जाते हम लोगों के पैर कंटीली झाड़ियों और पत्थरों के चलते घायल हो जाते हैं। इसके चलते हमें काफी पीड़ा होती है। आप इसका कोई उपाय करें, ताकि इस परेशानी से मुक्ति मिले।’ ब्रह्मा ने पलभर विचार करने के बाद कुटीर और लघु उद्योग मंत्रालय का काम-काज देख रहे विश्वकर्मा जी को तत्काल ब्रह्म लोक में उपस्थिति होने का एसएमएस भेजा। एसएमएस पाते ही ‘पुष्पक एयरलाइंस’ के सबसे तेज गति वाले वायुयान ‘पवन’ से वे ब्रह्मलोक पहुंचे। पहुंचते ही उन्होंने देवों और दानवों को पद पीड़ा से कराहते पाया। उन्हें देखते ही ब्रह्मा ने रोष भरे स्वर में कहा, ‘जल्दी ही इन लोगों के लिए किसी पदत्राण की व्यवस्था करो।’ कहते हैं कि विश्वकर्मा ने सबसे पहले बेल में काफी दिनों तक लगी रहने से पक गई तोरई (बियाड़ हो चुकी) को दबाने के बाद अंगूठे के पास छेद चप्पलनुमा पदत्राण तैयार किया। इसे पहनने के बाद देव-दानवों को काफी राहत महसूस हुई। अब वे चपलता से शिकार और आपसी युद्ध में रत रहने लगे। उनकी चपलता (गति) में वृद्धि हो जाने के कारण कालांतर में यह ‘चप्पल’ कहलाया। बाद में चप्पल बनाने की कला में और निखार आता गया। नए-नए प्रयोग किए जाने लगे। चप्पल को बनाने में भिन्न-भिन्न कालों में तोरई, काठ और चमड़े से लेकर गटापारचा (प्लास्टिक) तक का प्रयोग होता रहा। बाद में इसका उपयोग एकदूसरे के सिर पर बजाने में होने लगा। इससे एक नया शब्द हिंदी साहित्य को मिला और वह था ‘जूतम-पैजार।’
अभी दो साल पहले पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में प्राचीनकाल का एक जूता मिला है। इतिहासकारों को मत है कि यह सिंधुघाटी सभ्यता काल का है। उस जूते के पास पाए गए एक शिलालेख को डिकोड (भाषा को पढ़ने) करने से पता चला कि वह एक भविष्यवाणी है। उसमें कहा गया है कि कलिकाल (कलियुग) में एक समय ऐसा आएगा, जब मनुष्य इसका उपयोग अपने पैरों की सुरक्षा के साथ-साथ राजनीतिक उपयोग भी करेगा। किसी नेता या मंत्री पर जूता फेकने की शुरुआत ईराक का एक पत्रकार करेगा, बाद में इसका व्यापक प्रचार-प्रसार आर्यावर्त (भारत) में होगा। घोर कलयुग में गांधीवादी नेता और समाजसेवी अन्ना हजारे, कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी, भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और योग गुरु बाबा रामदेव जैसे अन्य कई विभूतियों पर पदत्राण फेंके जाएंगे जिससे उनकी लोकप्रियता में वृद्धि होगी। वाकई, उस युग के लोग महान भविष्य दृष्टा थे। उनमें भविष्य को देखने, पढ़ने और समझने की शक्ति थी। नहीं तो, आप ही सोचिए, जो घटनाएं आज घटित हो रही हैं, उसका उल्लेख उस शिलालेख में कैसे संभव हो पाया। शिलालेख में दर्ज है कि जिस नेता, समाजसेवी या मंत्री पर जूते-चप्पल फेंके जाएंगे, वह अपने को धन्य मानेगा। भले ही वह मीडिया के सामने निंदा करे, लेकिन उसका दिल गार्डेन-गार्डेन (बाग-बाग) होता रहेगा। कोई भी व्यक्ति जूता या चप्पल फेंकने वाले के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराना चाहेगा क्योंकि जूते या चप्पल का प्रक्षेपण उनके राजनीतिक जीवन के लिए संजीवनी का काम करेगा। कई नेता और अधिकारी तो इसी कुंठा में दुबले होते रहेंगे कि पता नहीं, उनका नंबर कब आएगा। कहने का मतलब है कि जूते या चप्पल का प्रक्षेपण व्यक्ति, नेता, राजनीतिक दल और साधु-संतों की लोकप्रियता का पैमाना हो जाएगा। तो पाठकों, आपका क्या विचार है। हो जाए एक बार फिर जूतम पैजार।
Thursday, February 9, 2012
खबरदार! जो वेलेंटाइन डे पर विश किया

अशोक मिश्र
मैं लगभग बारह-तेरह साल की उम्र में ही ‘पंडित’ हो जाना चाहता था। तब मैं छठवीं या सातवीं कक्षा में था। स्कूल के अध्यापक-अध्यापिकाओं से पढ़ाई को लेकर रोज पिट जाता था। अध्यापक-अध्यापिकाएं पीटते समय अकसर कहा करती थीं,‘नालायक, पढ़ने-लिखने पर ध्यान देने की बजाय फालतू कामों में लगा रहता है। पता नहीं कहां से भर्ती हो गया है इस स्कूल में।’ मेरी सहपाठिनें मेरे पंडित होने के प्रयास से परेशान रहती थीं। गाहे-बगाहे इन सहपाठिनों के कुछ हो चुके या होने वाले ‘पंडितों’ से मारपीट हो जाती थी। दबंग या मुझसे ऊंची क्लास में पढ़ने वाली लड़कियों को हाथों तो कई बार ठोंका जा चुका था। मेरे पंडित होने के प्रयास की शिकायतें भी यदा-कदा प्रिंसिपल या क्लास टीचर से हो जाती, तो उस दिन मेरी शामत आ जाती। भरी क्लास में लात-घूंसे खाकर भी वीरों (बेशर्म भी कह सकते हैं) की तरह हंसता रहता। जब स्कूल में दाल नहीं गली, तो मैंने अपने मोहल्ले में पंडित हो जाने के प्रयास शुरू किया। जब सनक ज्यादा हो चली, तो घर में भी शिकायतें आने लगीं। कामिनीं, कांति, कंचन, रामदुलारी अपनी मम्मी, पापा या भाइयों के साथ शिकायतों का पुलिंदा लेकर अम्मा के सामने आने लगी, तो लगने लगा कि मुझे अपने पांडित्य की पोटेंसी कुछ कम करनी होगी, वरना भइया खाल खींचकर भूसा भरने में देर नहीं लगाएंगे। लेकिन कहावत है न! कि एक बार बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी।
एक दिन मैं अनामिका के साथ पंडित होने का प्रयास कुछ ज्यादा ही कर गया। रोती हुई अनामिका घर पहुंची, तो उसके बाबा अनामिका को लेकर मेरे घर पहुंच गए। भइया घर के बाहर ही बैठे थे। मेरी पेशी हुई। मैंने घिघियाते हुए कहा,‘मेरी क्या गलती है। कबीर के कहने पर ही पंडित होने का प्रयास कर रहा हूं।’ शेर की तरह भइया दहाड़े, ‘कौन कबीर? वही कबीर जिसने तेरी किताब फाड़ी थी? अब तू उस शोहदे का साथ करने लगा है?’ भीतर से डरा हुआ मैं सोचने लगा कि यदि रो पड़ूं, तो शायद अपराध की सांद्रता कुछ कम हो जाए। बस फिर क्या था? आंखों से अश्रुधार बह निकली, ‘वो कबीर नहीं, किताब वाले कबीर।’ भइया ने पूछा, ‘किताब वाला कौन-सा कबीर? तुम कहना क्या चाहते हो?’ मैंने कहा, ‘मेरी किताब वाले कबीर..कबीरदास। उन्होंने ही तो लिखा है कि पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित हुआ न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। मैं अपने किताब में लिखी कबीरदास की बात का अनुसरण करने का प्रयास कर रहा हूं। मैं तो ढाई आखर पढ़ने की कोशिश अनामिका के साथ कर रहा था।’ इसके बाद आप कल्पना कर सकते हैं कि क्या हुआ होगा। भइया यह कहते हुए मुझ पर पिल पड़े, ‘अच्छा! तो तू इसीलिए पढ़ाई-लिखाई ताख पर रखकर छिछोरेपन पर उतारू हो गया है।’ इसके बाद भइया ने अनामिका के बाबा को आश्वस्त किया कि आइंदा, ऐसी कोई हरकत इसने की, तो इसकी खाल खींच लूंगा।
मेरी समझ में न तो तब आया था, न अब आया है कि आखिर मेरी पिटाई आखिर क्यों होती थी। मैं तो कबीरदास, सूरदास जैसे दासों और संतों की शिक्षाओं का पालन ही तो कर रहा था। हमारे देश के ही नहीं, दुनिया भर के महापुरुषों और साधु-संतों ने कहा है कि सबसे प्रेम करो। कबीरदास जी को इन लोगों से कई हाथ आगे बढ़कर प्रेम का ढाई आखर पढ़ने की ही सलाह देते हैं। वे तो दावे के साथ कहते हैं कि स्कूल-कालेजों में डिग्रियां लेने और मोटी-मोटी किताबें रटने और पढ़ने से कोई पंडित (विद्वान) नहीं होने वाला है। इसका सबसे सहज और सरल रास्ता यही है कि प्रेम ग्रंथ पढ़कर विद्वान हो जाया जाए। इसलिए अब अगर मैं अपनी सहपाठिनों, मोहल्ले की लड़कियों से प्रेम करता था, तो क्या गलत करता था? मेरी समझ में नहीं आता है कि लोग ‘गुड़’ खाकर ‘गुलगुले’ से परहेज क्यों करते हैं? एक ओर तो वे कहते हैं कि साधु-संतों की शरण में जाओ। उनकी शिक्षाओं को दिल में उतारो, उनका अनुसरण करो। अगर कोई किशोर उनकी शिक्षाओं पर अमल करे, तो उसकी ठुकाई कर दो। भगवान कृष्ण ने भी तो सबसे प्रेम करने का संदेश दिया है। वे खुद भी तो आजीवन हजारों गोपिकाओं के साथ रास लीला रचाते थे। हमारे देश के आधुनिक संत-महात्मा अगर रासलीला रचाएं, तो कोई बात नहीं और अगर मैं किसी से प्रेम करूं, प्रेम का इजहार करूं, तो वह गलत है, पिटाई के योग्य है।
भला हो संत वेलेंटाइन और बाजारवादी शक्तियों का। शायद बाजारवादी शक्तियों ने हम लोगों की किशोरवस्था के दौरान होने वाली दिक्कतों और बाजार की जरूरतों को देखते हुए पहले वेलेंटाइन डे और फिर वीक को इतना प्रचारित कर दिया कि आज छोटे-छोटे बच्चे-बच्चियां अपने मां-बाप, भाई-बहन के सामने भी सीना ठोंककर पंडित हो रही हैं या होने की कोशिश करती हैं। उन्हें मेरी तरह अपने भइया से पिटने की जरूरत नहीं रही। संत वेलेंटाइन की यही खूबी को युवाओं को भा रही है। हालांकि संत वेलेंटाइन और संत कबीरदास से पहले ही हमारे देश में मदनोत्सव मनाने की परंपरा रही है। उस युग में शायद गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज करने वाली रीति समाज में प्रचलित नही थी या फिर इन सब मामलों में सामाजिक नियम इतने कठोर थे कि उदारवादी लोगों ने तय किया होगा कि एक दिन विशेष युवाओं को छिछोरी हरकतें करने की छूट प्रदान की जाए। छिछोरापन करने की छूट के लिए महीना चुना गया फाल्गुन। फाल्गुन आता है, तो अपने साथ मस्ती, उमंग और शरारत साथ लाता है। बाद में लोगों ने विशेष छूट लेकर पूरे महीने को ही ऐसी हरकतों के लिए रिजर्व कर लिया। पोपले मुंह वाले बाबा भी नवविवाहिताओं के देवर लगने लगते हैं। कहा भी जाता है कि फागुन में बाबा देवर लागें। अब फाल्गुन और वेलेंटाइन वीक ने सजनी-सजनियों को बौरा दिया है। बचपन में पंडित होने के प्रयास में पिटने वाला मैं हर साल वेलेंटाइन डे से पूर्व और कई दिन बाद तक वेलेंटाइन की खोज में बौराया घूमता रहता था। इस साल सोचा था कि कोई न कोई वेलेंटाइन मिल ही जाएगी। लेकिन अफसोस है कि इस साल भी मुझ 42 साल के नवयुवक को किसी ने घास नहीं डाली। प्रपोज डे बीत गया, चॉकलेट डे कब आया और कब चला गया, पता ही नहीं चला। किस डे, हग डे जैसे तमाम डे मुझे ठेंगा दिखाकर चलते बने। थक-हारकर आज मैंने फैसला किया है कि मैं अपनी पुरानी वेलेंटाइन (घरैतिन) के साथ वेलेंटाइन डे मनाने उसके पास जा रहा हूं। खबरदार, जो किसी ने अब मुझे फोन या एसएमएस भेजकर वेलेंटाइन डे विश किया।