Tuesday, March 10, 2015

भाजपा कब तक ढोएगी पीडीपी को?

अशोक मिश्र 
एक बहुत पुरानी कहावत है कि पूत के पांव पालने से ही दिखाई देने लगते हैं। यह कहावत अभी इसी महीने जम्मू-कश्मीर में गठित हुई भाजपा और पीडीपी की गठबंधन सरकार पर पूरी तरह चरितार्थ हो रही है। पीडीपी के मुखिया मुफ्ती मोहम्मद सईद ने मुख्यमंत्री बनने के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में ही भाजपा के लिए संकट खड़ा कर दिया। अब गठबंधन धर्म के नाते संसद में भाजपा सवालों के घेरे में खड़ी है। इतना ही नहीं, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद जहां राज्य में सही ढंग से हुए चुनाव में पाकिस्तान और अलगाववादियों की भूमिका को सही ठहराते हुए अपनी बात पर अड़े हुए हैं, वहीं उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती मीडिया पर दोष मढ़ रही हैं कि मीडिया ने उनकी बात को सही तरीके से समझा नहीं। बात इतनी ही होती, तो शायद भाजपा-पीडीपी गठबंधन सरकार के रिश्तों को लेकर आशंका नहीं पैदा होती। इस विवादित बयान के दूसरे ही दिन पीडीपी विधायकों ने अफजल गुरु के शव के अवशेष मांगकर भाजपा के सामने एक और नई मुसीबत खड़ी कर दी। यह एक ऐसा संवेदनशील मुद्दा है जिस पर मोदी सरकार ही नहीं, पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह की सरकार भी फूंक-फूंक कर कदम रख रही थी।
दरअसल, पीडीपी से गठबंधन करके भाजपा ने एक जुआ खेला है। इस बात को भाजपा भी समझती है कि यदि जरा सी चूक हुई, तो यह दांव उलटा पड़ सकता है। जम्मू-कश्मीर में खोने के लिए पीडीपी के पास भले ही कुछ न हो, लेकिन भाजपा के पास बहुत कुछ है। यह सही है कि भाजपा का कश्मीरघाटी में जनाधार नहीं है। यदि यह सरकार छह साल चल भी गई, तो भी उसका जनाधार कश्मीर में बनने वाला नहीं है। वहां का माहौल ही भाजपा और भारतीय सेना के विरोध में हैं। केंद्र में इतने वर्षों तक शासन करने के बावजूद कांग्रेस वहां अपना जनाधार नहीं बना पाई, तो भाजपा के प्रति वहां पहले से ही दुराग्रह का भाव है। हां, यदि निकट भविष्य में भाजपा और पीडीपी सरकार का पतन होता है, तो भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि के साथ-साथ कुछ प्रतिशत जनाधार से भी हाथ धोना पड़ेगा। इस बात से सभी वाकिफ हैं कि पीडीपी और भाजपा दोनों विपरीत ध्रुव वाली पार्टियां हैं। इन दोनों का आपसी तालमेल कायम रखना, तेल और पानी को मिलाने की कोशिश करने जैसा है। ठीक वैसे ही जैसे जम्मू और कश्मीर में रहने वाले लोगों की मानसिकता में जमीन आसमान का अंतर है, ठीक वैसा ही अंतर इन दोनों पार्टियों की विचारधारा में है। फिर भी यदि दोनों पार्टियों के मुखिया यह गठबंधन की सरकार बनाए रखना चाहते हैं, तो सबसे पहले दोनों को विवादास्पद बयान देने से बचना होगा। यह जिम्मेदारी मुख्यमंत्री होने के नाते सईद की सबसे ज्यादा है। उन्हें भारतीय जनमानस की मानसिकता को समझना होगा। उन्हें ऐसे हालात पैदा करने से बचना होगा, जो भाजपा को असहज कर दें। पीडीपी से गठबंधन करने के बाद से ही भाजपा के उन समर्थकों को लग रहा है कि जम्मू-कश्मीर से धारा ३७० को हटते हुए देखना चाहते हैं। ऐसे लोगों को लग सकता है कि भाजपा ने सत्ता की लालच में पीडीपी को ज्यादा ही छूट दी है और ये लोग उससे दूर जा सकते हैं। भाजपा के साथ-साथ पीडीपी को यह भी तय करना होगा कि राज्य सरकार और सेना का संबंध कैसा रहे। पीडीपी और अलगाववादी नेता काफी दिनों से अफ्सा जैसे कानून को हटाने की मांग करते आ रहे हैं। अफ्सा जैसे कानून की मदद से ही सेना अलगाववादी ताकतों और पाक समर्थित-पोषित आतंकवादियों पर काबू पाने में सफल हो पाती है। वैसे, तो नेशनल कान्फ्रेंस भी अफ्सा को हटाने की बात करती रही है, लेकिन जब तक उनकी सरकार रही, वह ऐसे मुद्दे पर खामोश रही। अब जब उनके हाथ से सत्ता जा चुकी है, तो वह भी पीडीपी के सुर में सुर मिला रही है। मुख्यमंत्री सईद को सेना के साथ सहयोगात्मक रवैया अपनाना होगा। यदि ऐसा नहीं होता है, तो भाजपा को मजबूरन गठबंधन तोडऩा पड़ सकता है। इसके साथ ही कई ऐसे क्षेत्रीय मुद्दे हैं जिन पर भाजपा और पीडीपी में टकराव संभव है। पीडीपी अपने जन्मकाल से ही जम्मू को हिंदुओं का और कश्मीर को मुसलमानों का मानती आई है। उसके नेता कश्मीरी पंडितों के पलायन को उचित ठहराने की कोशिश करते रहे हैं।
इन दोनों हिस्सों में रहने वालों के बीच प्रतिद्वंद्विता का भाव भी काफी गहरा है। गठबंधन सरकार की यह पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि वे ऐसी भावना को कतई हवा न दें। यदि ऐसा होता है, तो यह न केवल राज्य बल्कि पूरे देश का माहौल बिगाड़ सकता है। मुख्यमंत्री को दोनों समुदायों हिंदू और मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा करनी होगी। अगर आपसी समझदारी और सामंजस्य से चलाया गया तो यह राज्य के क्षेत्रीय और धार्मिक विभाजन को पाटने में ऐतिहासिक साबित हो सकता है।

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