अशोक मिश्र
मेरे एक मित्र हैं राम भूल उपाध्याय। कहते हैं कि राम ने जब उन्हें गढ़ा, तो मर्त्यलोक में भेजना ही भूल गया। काफी दिनों बाद याद आई, तो ढकेल दिया धरती पर, जाओ ऐश करो। तो कुल लब्बोलुआब यह है कि कल रात खबर मिली कि किसी से टकराकर राम भूल उपाध्याय चोटिल हो गए हैं और अस्पताल में हैं। मैं भागा-भाग अस्पताल पहुंचा, तो देखा कि उपाध्याय जी दहाड़ रहे थे, ‘यहां से हटाओ इसे ..मैं इससे पट्टी नहीं बंधवाना चाहता।’ मैंने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘क्या हुआ उपाध्याय जी..आप क्यों अस्पताल में गदर मचाए हुए हैं? बात क्या है?’
उपाध्याय जी दहाड़े, ‘देखने से ही हई नर्स नर्स नहीं लगती है। देखो तो किस तरह सज-संवर कर आई है। यह क्या इलाज करेगी मेरा।’ मैंने कहा, ‘छोड़िए...यह सब बातें। आप यह बताइए कि यह हादसा हुआ कैसे? कहां टकरा गए थे? पहले भी आपसे कहा है कि गाड़ी चलाते समय औरतों को घूर-घूरकर देखना बंद कीजिए, लेकिन आप हैं कि सुधरने का नाम ही नहीं लेते हैं।’ मेरी बात सुनकर रामभूल उपाध्याय एकदम से आग बबूला हो गए,‘अरे क्या बताएं! नालायक को सड़क पर चलने की तमीज ही नहीं है। यह गोरखपुर तो अब चलने के लायक नहीं रहा। छोटे-बड़े का लिहाज ही नहीं रहा। बताओ भला..छोटे-छोटे लौंडे सर्र-सर्र मोटरसाइकिल आगे से निकाल ले जाते हैं। इन लौंडे-लपाड़ियों के चक्कर में मैं कई बार तो गिरते-गिरते बचा हूं।’
मैंने उपाध्याय जी को टोकते हुए कहा, ‘आप यह बताइए कि सड़क पर आपने ठोंका किसे? आपको चोट तो ज्यादा नहीं लगी? गाड़ी तो सही सलामत है न!’ उपाध्याय जी अपना दर्द भूलकर बोले, ‘गाड़ी को नुकसान तो हुआ है, बहुत हुआ है।’ उन्होंने यह बात कुछ इस तरह से कही कि मैं तय नहीं कर पाया, उन्हें टांग टूटने का अफसोस ज्यादा है या गाड़ी के टूटने का।
‘अरे आप बात तो बताइए, हुआ कैसे?’ मैं भी मामला जानने को उत्सुक था। वे कुछ देर बाद बुदबुदाए, ‘ये समधिन भी न..’ मैंने बात काटी, ‘अब आपकी टांग टूटने में समधिन कहां से कूद पड़ीं।’ उपाध्याय जी झल्लाए स्वर में बोले, ‘मैं टकराया भी तो समधिन के कारण था। मैं घर जा रहा था, अचानक समधिन की याद आ गई। उनकी मृगनयनी आंखों को याद करने में इतना खो गया कि सामने से आता वह दिखा ही नहीं।’ अब मेरा धैर्य जवाब देने लगा था। मैंने झल्लाए स्वर में कहा,‘भगवन! आप टकराये किससे थे?’ ‘अरे यार! बरगदवां के पास सांड से टकरा गया था। ससुरा दायीं ओर चला आ रहा था। ससुरे साड़ तक को तो सड़क पर चलने की तमीज ही नहीं है।’ उपाध्याय जी की बात सुनते ही मैं ठहाका लगाकर हंस पड़ा।
मेरे एक मित्र हैं राम भूल उपाध्याय। कहते हैं कि राम ने जब उन्हें गढ़ा, तो मर्त्यलोक में भेजना ही भूल गया। काफी दिनों बाद याद आई, तो ढकेल दिया धरती पर, जाओ ऐश करो। तो कुल लब्बोलुआब यह है कि कल रात खबर मिली कि किसी से टकराकर राम भूल उपाध्याय चोटिल हो गए हैं और अस्पताल में हैं। मैं भागा-भाग अस्पताल पहुंचा, तो देखा कि उपाध्याय जी दहाड़ रहे थे, ‘यहां से हटाओ इसे ..मैं इससे पट्टी नहीं बंधवाना चाहता।’ मैंने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘क्या हुआ उपाध्याय जी..आप क्यों अस्पताल में गदर मचाए हुए हैं? बात क्या है?’
उपाध्याय जी दहाड़े, ‘देखने से ही हई नर्स नर्स नहीं लगती है। देखो तो किस तरह सज-संवर कर आई है। यह क्या इलाज करेगी मेरा।’ मैंने कहा, ‘छोड़िए...यह सब बातें। आप यह बताइए कि यह हादसा हुआ कैसे? कहां टकरा गए थे? पहले भी आपसे कहा है कि गाड़ी चलाते समय औरतों को घूर-घूरकर देखना बंद कीजिए, लेकिन आप हैं कि सुधरने का नाम ही नहीं लेते हैं।’ मेरी बात सुनकर रामभूल उपाध्याय एकदम से आग बबूला हो गए,‘अरे क्या बताएं! नालायक को सड़क पर चलने की तमीज ही नहीं है। यह गोरखपुर तो अब चलने के लायक नहीं रहा। छोटे-बड़े का लिहाज ही नहीं रहा। बताओ भला..छोटे-छोटे लौंडे सर्र-सर्र मोटरसाइकिल आगे से निकाल ले जाते हैं। इन लौंडे-लपाड़ियों के चक्कर में मैं कई बार तो गिरते-गिरते बचा हूं।’
मैंने उपाध्याय जी को टोकते हुए कहा, ‘आप यह बताइए कि सड़क पर आपने ठोंका किसे? आपको चोट तो ज्यादा नहीं लगी? गाड़ी तो सही सलामत है न!’ उपाध्याय जी अपना दर्द भूलकर बोले, ‘गाड़ी को नुकसान तो हुआ है, बहुत हुआ है।’ उन्होंने यह बात कुछ इस तरह से कही कि मैं तय नहीं कर पाया, उन्हें टांग टूटने का अफसोस ज्यादा है या गाड़ी के टूटने का।
‘अरे आप बात तो बताइए, हुआ कैसे?’ मैं भी मामला जानने को उत्सुक था। वे कुछ देर बाद बुदबुदाए, ‘ये समधिन भी न..’ मैंने बात काटी, ‘अब आपकी टांग टूटने में समधिन कहां से कूद पड़ीं।’ उपाध्याय जी झल्लाए स्वर में बोले, ‘मैं टकराया भी तो समधिन के कारण था। मैं घर जा रहा था, अचानक समधिन की याद आ गई। उनकी मृगनयनी आंखों को याद करने में इतना खो गया कि सामने से आता वह दिखा ही नहीं।’ अब मेरा धैर्य जवाब देने लगा था। मैंने झल्लाए स्वर में कहा,‘भगवन! आप टकराये किससे थे?’ ‘अरे यार! बरगदवां के पास सांड से टकरा गया था। ससुरा दायीं ओर चला आ रहा था। ससुरे साड़ तक को तो सड़क पर चलने की तमीज ही नहीं है।’ उपाध्याय जी की बात सुनते ही मैं ठहाका लगाकर हंस पड़ा।
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