अशोक मिश्र
एक दिन पता नहीं कहां से जमालो को सूचना मिली कि गांववालों ने फूस की झोपड़ियों में कालाधन छिपा रखा है। बस, जमालो के दिमाग में खब्त सवार हो गया िक गांव के हित में झोपड़ियों में छिपा कालाधन बाहर लाना है। गांव का हर हालत में विकास करवाना है। पहले तो उन्होंने गांव वालों से चिरौरी की कि भइया..डेहरी, (मिट्टी की बखार जिसमें अनाज रखा जाता है), हांड़ी-गगरी में जो तुमने गांव के विकास में लगने वाला कालाधन छिपाकर रखा है, वह मेरे पास जमा कर दो। गांव के बड़े लोग उनकी बात सुनकर मुंह छिपाकर हंसते और गरीब चिरौरी करते कि परधानिन जी! यहां जहर खाने को पैसे नहीं है, आप कालाधन की बात कर रही हैं।
एक दिन गांव में वह हुआ जिसकी किसी को आशंका तक नहीं थी। गांव में जितनी भी झोपड़ियां थीं, वे धू-धू कर जलने लगीं। लोग बदहवास से अपने-अपने घर की आग बुझाने में जुट गए। जमालो ऊंची जगह पर खड़ी होकर कहने लगीं, जिसकी भी झोपड़ियां जल रही हैं, वे मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं। इतनी सर्दी में मैंने तापने की व्यवस्था तो कर दी।
एक हैं जमालो। जमालो का संबंध ‘चौंका’ संप्रदाय से है। बात-बात पर चौंकना और दूसरों को चौंका देना, उनका शगल है। उनके पेट में पूरे गांव की खबरें दिन भर खदबदाया करती हैं। गांव-जंवार की खबरें उन तक न पहुंचे, ऐसा हो ही नहीं सकता। इस बात को आप यों समझें कि गांव वालों के लिए वे करमचंद जासूस हैं। किसके घर में दाल पकी, किसके घर में भूजे से काम चला और कौन रात में भूखे पेट सोया, सब राई-रत्ती जमालो को खबर रहती है। एक दिन गजब हो गया। पता नहीं किसने जमालो को परधानी का चुनाव लड़ने की सलाह दे दी। वे मान भी गईं। उस पर कोढ़ में खाज वाली कहावत तब चरितार्थ हुई कि वे परधानी का चुनाव भी जीत गईं। जीतते ही चौपाल पर जमालो ने घोषणा की कि अगर गांव के लोग दस घंटे काम करेंगे, तो वे ग्यारह घंटे काम करेंगी। अगर वे चौबीस घंटे काम करेंगे, तो वे पच्चीस घंटे लगातार काम करने के बाद ही पानी पियेंगी।
लोगों ने खूब तालियां बजाई। भीड़ में से एक युवक ने कहा, परधानिन जी! दिन तो चौबीस घंटे का ही होता है..आप पच्चीस घंटे कैसे काम करेंगी? जमालो ने उसे डपट दिया, खबरदार! जो परधानिन कहा। मैं पराधान सेवक हूं। उस दिन से जब भी जमालो गांव की जनता को संबोधित करतीं, खुद को परधान सेवक कहती थीं। जमालो की एक खूबी यह थी कि वे भीड़ जमा कर लेने में दक्ष थीं। मदारी की तरह डमरू बजाते ही लोग उनकी बात सुनने के लिए अपना काम-धाम छोड़कर जमा हो जाते हैं।एक दिन पता नहीं कहां से जमालो को सूचना मिली कि गांववालों ने फूस की झोपड़ियों में कालाधन छिपा रखा है। बस, जमालो के दिमाग में खब्त सवार हो गया िक गांव के हित में झोपड़ियों में छिपा कालाधन बाहर लाना है। गांव का हर हालत में विकास करवाना है। पहले तो उन्होंने गांव वालों से चिरौरी की कि भइया..डेहरी, (मिट्टी की बखार जिसमें अनाज रखा जाता है), हांड़ी-गगरी में जो तुमने गांव के विकास में लगने वाला कालाधन छिपाकर रखा है, वह मेरे पास जमा कर दो। गांव के बड़े लोग उनकी बात सुनकर मुंह छिपाकर हंसते और गरीब चिरौरी करते कि परधानिन जी! यहां जहर खाने को पैसे नहीं है, आप कालाधन की बात कर रही हैं।
एक दिन गांव में वह हुआ जिसकी किसी को आशंका तक नहीं थी। गांव में जितनी भी झोपड़ियां थीं, वे धू-धू कर जलने लगीं। लोग बदहवास से अपने-अपने घर की आग बुझाने में जुट गए। जमालो ऊंची जगह पर खड़ी होकर कहने लगीं, जिसकी भी झोपड़ियां जल रही हैं, वे मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं। इतनी सर्दी में मैंने तापने की व्यवस्था तो कर दी।
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