प्रख्यात उपन्यासकार एवं व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल नहीं रहे। उपन्यास ‘राग दरबारी’ के माध्यम से ग्रामीण जीवन में आने वाली मूल्यहीनता को जिस प्रामाणिकता और साहस के साथ श्री शुक्ल जी ने उकेरा, वह अद्वितीय है। पिछले दिनों स्व. श्रीलाल शुक्ल जी को लखनऊ के एक अस्पताल में 45वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था। श्रीलाल शुक्ल के व्यक्तित्व और कृतित्व पर ज्ञानपीठ अकादमी से जुड़े प्रख्यात साहित्यकार और व्यंग्यकार सुशील सिद्धार्थ से राष्ट्रीय साप्ताहिक ‘हमवतन’ के स्थानीय संपादक अशोक मिश्र ने बातचीत की। पेश हैं बातचीत के प्रमुख अंश...।
आप इन दिनों ज्ञानपीठ से जुड़े हुए हैं, इसलिए सबसे पहले स्व. श्रीलाल शुक्ल जी को दिए गए ज्ञानपीठ पुरस्कार से ही बात शुरू करते हैं। श्रीलाल जी को तब ज्ञानपीठ दिया गया, जब वे मरणासन्न हालत में थे। एक मरणासन्न युगदृष्टा साहित्यकार ऐसी हालत में न तो उस सम्मान से उत्साहित होकर कोई नवसृजन कर सकता है, न ही उस सम्मान का आनंद उठा सकता है। आपको यह सब कुछ गलत नहीं लगता है?
- आपका कहना बहुत हद तक सही है, लेकिन ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान करने की एक अपनी प्रक्रिया है। ज्ञानपीठ प्रदान करने वाली समिति किसी एक ही भाषा के साहित्यकारों पर विचार नहीं करती है। सभी भाषा के मूर्धण्य साहित्यकारों को ध्यान में रखना पड़ता है। एक बार जब किसी भाषा के साहित्यकार को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाता है, तो उस भाषा के साहित्यकारों पर तीन साल तक विचार नहीं होता। वरिष्ठ साहित्यकार और व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल और वरिष्ठ कहानीकार अमरकांत जी को एक साथ ज्ञानपीठ पुरस्कार इस बार इसीलिए दिया गया कि पता नहीं, अगली बार जब हिंदी भाषा के साहित्यकारों पर विचार हो और उस समय तक इन दोनों वरिष्ठ साहित्यकारों में से पता नहीं, कौन रहे और कौन न रहे। देखिए, आज श्रीलाल शुक्ल जी हम सबका साथ भी छोड़ गए।
क्या आपको नहीं लगता कि श्रीलाल शुक्ल जी या अमरकांत जी को ज्ञानपीठ देने में काफी देर हो गई?
- हिंदी भाषा में इतने अच्छे-अच्छे और कालजयी रचनाकार हैं कि उनके चयन में काफी देर हो जाती है। हां, यदि वरिष्ठ साहित्यकारों, अब श्रीलाल शुक्ल जी को ही उदाहरण लें, को अगर उन्हें कुछ साल पहले ज्ञानपीठ मिला होता, तो वे इसका सुख उठा सकते थे। आज से लगभग छह साल पहले जब श्रीलाल शुक्ल जी अस्सी साल के हुए थे, तभी से वे बीमार रहने लगे थे। कभी स्मृति लोप के शिकार हो जाते थे, तो कभी कोई दूसरी बीमारी हो जाती थी। यदि तभी उन्हें यह पुरस्कार मिल जाता, तो शायद अच्छा होता।
कहा जाता है कि श्रीलाल जी को तो पुरस्कार देने पड़े हैं। विभिन्न पुरस्कार देने वाली समितियां या संस्थाएं उन्हें सम्मानित करके अपना सम्मान बढ़ा गई हैं। आप इससे कितना सहमत हैं?
- ऐसी बात नहीं है। उनकी पहचान सिर्फ ‘राग दरबारी’ से ही नहीं है। अपनी पहली कृति ‘अंगद का पांव’ भी काफी चर्चित रही है। उनकी रचनाओं में भाषा और सरोकारों का जो लालित्य है, वह बेजोड़ है। तुलसी दास ने जीवनभर राम कथा कही, लेकिन ‘रामचरित मानस’ लिखकर उन्होंने जो हासिल किया, उसका कोई मुकाबला नहीं है। कोई पुरस्कार भी नहीं। जिस तरह तुलसी दास के ‘रामचरित मानस’, मुंशी प्रेमचंद के ‘गोदान’ का कोई साम्य नहीं है, उसी तरह श्रीलाल शुक्ल जी के ‘राग दरबारी’ का कोई साम्य नहीं है। यह व्यंग्य प्रधान उपन्यास लिखकर श्री शुक्ल जी ने जिन ऊंचाइयों को छू लिया था, वह अद्वितीय है। ‘राग दरबारी’ एक विलक्षण कृति है। उसमें ग्रामीण भारत का जो विवेचन हुआ है, वह अद्भुत है। अपने जीवनकाल में श्रीलाल शुक्ल जी ने बातचीत के दौरान कई बार इस बात पर खेद व्यक्त किया कि ‘राग दरबारी’ ने उनकी दूसरी कृतियों को दबा दिया। ‘मकान’, ‘विश्रामपुर का संत’ और ‘राग विराग’ जैसी रचनाओं की उतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी कि ‘राग दरबारी’ की हुई।
‘राग दरबारी’ का शिवपालगंज तो आज पूरे भारत में दिखाई देता है। देश के लगभग सभी गांवों की वही दशा है, जो लगभग 45-46 साल पहले लिखे गए व्यंग्य उपन्यास ‘राग दरबारी’ में श्रीलाल शुक्ल जी ने ‘शिवपालगंज’ नामक गांव को दर्शाया था।
- दरअसल, श्रीलाल शुक्ल जी भविष्य दृष्टा थे। ‘राग दरबारी’ का शिवपालगंज ही नहीं, बल्कि वे सभी संस्थाएं, जिनका चित्रण श्री शुक्ल जी ने किया था, आज भी उसी रूप में दिखाई देती हैं। चाहे वह स्कूल-कालेजों की राजनीति और भ्रष्टाचार हो, मठों-मंदिरों को लेकर चल रही उठापटक हो या फिर राजनीतिक संस्थाओं का विकृत रूप, सभी पक्षों पर शुक्ल जी ने सम्यक दृष्टि डाली और उसका जैसे एक्सरे करके सबके सामने पेश कर दिया।
व्यंग्य लेखन क्षेत्र में कभी हरिशंकर परसाईं, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल की त्रयी काफी मशहूर थी। दुर्भाग्य से त्रयी के तीनों मजबूत स्तंभ ढह चुके हैं। क्या आपको नहीं लगता है कि व्यंग्य क्षेत्र का सिंहासन आज खाली हो चुका है। उस सिंहासन का कोई वारिस दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहा है।
- देखिए, श्रीलाल शुक्ल जी के जाने के बाद एक रिक्तता तो जरूर आई है, लेकिन सिंहासन खाली होने जैसी बात नहीं है। पहले की तरह योजनाबद्ध और तैयारी करके व्यंग्य लिखने वाले साहित्यकार भी नहीं रहे। अखबारों में छिटपुट व्यंग्य लिखा जा रहा है, लेकिन इनमें लिखने वालों से कहा जाता है कि दो सौ-ढाई सौ शब्दों में लिखकर दीजिए। ऐसे में कोई क्या बढ़िया व्यंग्य लिखेगा! व्यंग्य पर भी एक व्यंग्य यह है कि आज का व्यंग्यकार ‘अटल जी के घुटने पर’, बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के अनशन पर लिख रहा है। ऐसे व्यंग्यकारों से आप क्या अपेक्षा रखते हैं। हरिशंकर परसार्इं जैसी विदग्ध दृष्टि, समाज और व्यंग्य की समझ, शरद जोशी जैसी चुटीली और पैनी भाषा आज के व्यंग्यकारों में दिखाई देती है क्या? व्यंग्य लिखने के लिए सबसे पहले साहस की जरूरत होती है। जब तक साहित्यकार में सच लिखने का साहस नहीं होगा, वह उच्च कोटि का साहित्यकार नहीं हो सकता। जहां तक व्यंग्य विधा की बात है, आज भी कुछ लोग अच्छा लिख रहे हैं। ज्ञान चतुर्वेदी, गोपाल चतुर्वेदी अच्छा लिख रहे हैं। दूधनाथ सिंह, रवींद्र कालिया की कहानियों में व्यंग्य भरपूर है। ये साहित्यकार इसे एक अलग विधा के रूप में न अपनाकर कहानियों में ही इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। हां, कुछ लोग इसे एक विधा मानकर लिख रहे हैं।
एक बार बातचीत के दौरान राजनीतिक दलों के संदर्भ में श्रीलाल शुक्ल जी ने कहा था कि मैं सड़क के बीच कुछ कदम हटकर बार्इं ओर खड़ा हूं। इसको आप किस रूप में लेते हैं?
- हां, यह बात उन्होंने अखिलेश से हुई बातचीत में कही थी। यह बातचीत तद्भव में छपी भी थी। बात यह है कि वे कभी किसी लेखक संघ या संगठन से जुड़े तो नहीं रहे, लेकिन जनवादी विचारधारा से उनका जुड़ाव जरूर था। आज के समय में जो भी लिख रहा है, वह वाम ओरिएंटेड होगा ही। उसका वाम विचारधारा से जुड़ाव नैसर्गिक है। लेकिन यह भी सही है कि किसी पार्टी का कार्ड होल्डर हो जाने से कोई लेखक नहीं हो जाता है। यदि ऐसा होता, तो आज हर गली-कूचे में लेखक ही लेखक दिखाई देते।
श्रीलाल शुक्ल जी का सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य उपन्यास ‘राग दरबारी’ है, तो दूसरी तरफ ‘आदमी का जहर’ जैसा जासूसी उपन्यास भी। इसके पीछे क्या कारण रहे होंगे?
- एक बार उनसे इस मुद्दे पर बातचीत हुई थी। श्री शुक्ल जी का कहना था कि ‘आदमी का जहर’ या ‘सीमाएं टूटती हैं’ जैसा उपन्यास मनहूसियत से मुक्ति पाने के लिए लिखे गए थे। वे कहते थे कि हिंदी साहित्यकारों की छवि ऐसी बना दी गई है कि वह जैसे कुछ और लिख ही नहीं सकता। ‘आदमी का जहर’ आप पढ़ें, तो उसमें भी किस्सागोई है। ‘राग दरबारी’ को सामने रखकर उनकी अन्य रचनाओं का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है।
अगर आप श्रीलाल जी के संपूर्ण साहित्य का गंभीर विवेचन करें, तो उसमें व्यक्ति, समाज और तंत्र किसी न किसी रूप में जरूर मौजूद है। इसके पीछे आप क्या कारण मानते हैं।
- संपूर्ण तंत्र को जिस तरह श्री लाल शुक्ल जी ने समझा, उनकी इस समझ की तारीफ करनी होगी। पहले आईपीएस और बाद में आईएएस अधिकारी होने के नाते भी तंत्र को उन्होंने बखूबी समझा। आज तंत्र या राजनीतिक भ्रष्टाचार पर लिखने वाले कितने लोग हैं और उनकी रचनाओं में कितनी गहराई है, यह सबके सामने है। लेकिन श्रीलाल शुक्ल जी यह समझते थे कि किसी गरीब व्यक्ति की अप्लीकेशन कहां-कहां अटकती है, कहां-कहां बिना कुछ लिए-दिए काम नहीं होगा? वे कुछ भी लिखने से पहले पूरी तैयारी करते थे, उसके बारे में पूरी जानकारी हासिल करते थे, तब कहीं जाकर वे लिखना शुरू करते थे। संयोग से उनका जीवन भी इस पूरे तंत्र के एक अंग के रूप में बीता। इसका उन्होंने अपने लेखन में भरपूर उपयोग किया।
Bahut barhiya sakshatkar. badhai
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