Thursday, February 9, 2012

खबरदार! जो वेलेंटाइन डे पर विश किया

अशोक मिश्र

मैं लगग बारह-तेरह साल की उम्र में ही पंडितहो जाना चाहता था। तब मैं छठवीं या सातवीं कक्षा में था। स्कूल के अध्यापक-अध्यापिकाओं से पढ़ाई को लेकर रोज पिट जाता था। अध्यापक-अध्यापिकाएं पीटते समय अकसर कहा करती थीं,‘नालायक, पढ़ने-लिखने पर ध्यान देने की बजाय फालतू कामों में लगा रहता है। पता नहीं कहां से र्ती हो गया है इस स्कूल में।मेरी सहपाठिनें मेरे पंडित होने के प्रयास से परेशान रहती थीं। गाहे-बगाहे इन सहपाठिनों के कुछ हो चुके या होने वाले पंडितोंसे मारपीट हो जाती थी। दबंग या मुझसे ऊंची क्लास में पढ़ने वाली लड़कियों को हाथों तो कई बार ठोंका जा चुका था। मेरे पंडित होने के प्रयास की शिकायतें ी यदा-कदा प्रिंसिपल या क्लास टीचर से हो जाती, तो उस दिन मेरी शामत आ जाती। री क्लास में लात-घूंसे खाकर ी वीरों (बेशर्म ी कह सकते हैं) की तरह हंसता रहता। जब स्कूल में दाल नहीं गली, तो मैंने अपने मोहल्ले में पंडित हो जाने के प्रयास शुरू किया। जब सनक ज्यादा हो चली, तो घर में ी शिकायतें आने लगीं। कामिनीं, कांति, कंचन, रामदुलारी अपनी मम्मी, पापा या ाइयों के साथ शिकायतों का पुलिंदा लेकर अम्मा के सामने आने लगी, तो लगने लगा कि मुझे अपने पांडित्य की पोटेंसी कुछ कम करनी होगी, वरना इया खाल खींचकर ूसा रने में देर नहीं लगाएंगे। लेकिन कहावत है न! कि एक बार बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी।

एक दिन मैं अनामिका के साथ पंडित होने का प्रयास कुछ ज्यादा ही कर गया। रोती हुई अनामिका घर पहुंची, तो उसके बाबा अनामिका को लेकर मेरे घर पहुंच गए। इया घर के बाहर ही बैठे थे। मेरी पेशी हुई। मैंने घिघियाते हुए कहा,‘मेरी क्या गलती है। कबीर के कहने पर ही पंडित होने का प्रयास कर रहा हूं।शेर की तरह इया दहाड़े, ‘कौन कबीर? वही कबीर जिसने तेरी किताब फाड़ी थी? अब तू उस शोहदे का साथ करने लगा है?’ ीतर से डरा हुआ मैं सोचने लगा कि यदि रो पड़ूं, तो शायद अपराध की सांद्रता कुछ कम हो जाए। बस फिर क्या था? आंखों से अश्रुधार बह निकली, ‘वो कबीर नहीं, किताब वाले कबीर।इया ने पूछा, ‘किताब वाला कौन-सा कबीर? तुम कहना क्या चाहते हो?’ मैंने कहा, ‘मेरी किताब वाले कबीर..कबीरदास। उन्होंने ही तो लिखा है कि पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित हुआ न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। मैं अपने किताब में लिखी कबीरदास की बात का अनुसरण करने का प्रयास कर रहा हूं। मैं तो ढाई आखर पढ़ने की कोशिश अनामिका के साथ कर रहा था।इसके बाद आप कल्पना कर सकते हैं कि क्या हुआ होगा। इया यह कहते हुए मुझ पर पिल पड़े, ‘अच्छा! तो तू इसीलिए पढ़ाई-लिखाई ताख पर रखकर छिछोरेपन पर उतारू हो गया है।इसके बाद इया ने अनामिका के बाबा को आश्वस्त किया कि आइंदा, ऐसी कोई हरकत इसने की, तो इसकी खाल खींच लूंगा।

मेरी समझ में न तो तब आया था, न अब आया है कि आखिर मेरी पिटाई आखिर क्यों होती थी। मैं तो कबीरदास, सूरदास जैसे दासों और संतों की शिक्षाओं का पालन ही तो कर रहा था। हमारे देश के ही नहीं, दुनिया र के महापुरुषों और साधु-संतों ने कहा है कि सबसे प्रेम करो। कबीरदास जी को इन लोगों से कई हाथ आगे बढ़कर प्रेम का ढाई आखर पढ़ने की ही सलाह देते हैं। वे तो दावे के साथ कहते हैं कि स्कूल-कालेजों में डिग्रियां लेने और मोटी-मोटी किताबें रटने और पढ़ने से कोई पंडित (विद्वान) नहीं होने वाला है। इसका सबसे सहज और सरल रास्ता यही है कि प्रेम ग्रंथ पढ़कर विद्वान हो जाया जाए। इसलिए अब अगर मैं अपनी सहपाठिनों, मोहल्ले की लड़कियों से प्रेम करता था, तो क्या गलत करता था? मेरी समझ में नहीं आता है कि लोग गुड़खाकर गुलगुलेसे परहेज क्यों करते हैं? एक ओर तो वे कहते हैं कि साधु-संतों की शरण में जाओ। उनकी शिक्षाओं को दिल में उतारो, उनका अनुसरण करो। अगर कोई किशोर उनकी शिक्षाओं पर अमल करे, तो उसकी ठुकाई कर दो। गवान कृष्ण ने ी तो सबसे प्रेम करने का संदेश दिया है। वे खुद ी तो आजीवन हजारों गोपिकाओं के साथ रास लीला रचाते थे। हमारे देश के आधुनिक संत-महात्मा अगर रासलीला रचाएं, तो कोई बात नहीं और अगर मैं किसी से प्रेम करूं, प्रेम का इजहार करूं, तो वह गलत है, पिटाई के योग्य है।

ला हो संत वेलेंटाइन और बाजारवादी शक्तियों का। शायद बाजारवादी शक्तियों ने हम लोगों की किशोरवस्था के दौरान होने वाली दिक्कतों और बाजार की जरूरतों को देखते हुए पहले वेलेंटाइन डे और फिर वीक को इतना प्रचारित कर दिया कि आज छोटे-छोटे बच्चे-बच्चियां अपने मां-बाप, ाई-बहन के सामने ी सीना ठोंककर पंडित हो रही हैं या होने की कोशिश करती हैं। उन्हें मेरी तरह अपने इया से पिटने की जरूरत नहीं रही। संत वेलेंटाइन की यही खूबी को युवाओं को ा रही है। हालांकि संत वेलेंटाइन और संत कबीरदास से पहले ही हमारे देश में मदनोत्सव मनाने की परंपरा रही है। उस युग में शायद गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज करने वाली रीति समाज में प्रचलित नही थी या फिर इन सब मामलों में सामाजिक नियम इतने कठोर थे कि उदारवादी लोगों ने तय किया होगा कि एक दिन विशेष युवाओं को छिछोरी हरकतें करने की छूट प्रदान की जाए। छिछोरापन करने की छूट के लिए महीना चुना गया फाल्गुन। फाल्गुन आता है, तो अपने साथ मस्ती, उमंग और शरारत साथ लाता है। बाद में लोगों ने विशेष छूट लेकर पूरे महीने को ही ऐसी हरकतों के लिए रिजर्व कर लिया। पोपले मुंह वाले बाबा ी नवविवाहिताओं के देवर लगने लगते हैं। कहा ी जाता है कि फागुन में बाबा देवर लागें। अब फाल्गुन और वेलेंटाइन वीक ने सजनी-सजनियों को बौरा दिया है। बचपन में पंडित होने के प्रयास में पिटने वाला मैं हर साल वेलेंटाइन डे से पूर्व और कई दिन बाद तक वेलेंटाइन की खोज में बौराया घूमता रहता था। इस साल सोचा था कि कोई न कोई वेलेंटाइन मिल ही जाएगी। लेकिन अफसोस है कि इस साल ी मुझ 42 साल के नवयुवक को किसी ने घास नहीं डाली। प्रपोज डे बीत गया, चॉकलेट डे कब आया और कब चला गया, पता ही नहीं चला। किस डे, हग डे जैसे तमाम डे मुझे ठेंगा दिखाकर चलते बने। थक-हारकर आज मैंने फैसला किया है कि मैं अपनी पुरानी वेलेंटाइन (घरैतिन) के साथ वेलेंटाइन डे मनाने उसके पास जा रहा हूं। खबरदार, जो किसी ने अब मुझे फोन या एसएमएस भेजकर वेलेंटाइन डे विश किया।

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