Wednesday, January 8, 2014

न खाऊंगा, न खाने दूंगा

अशोक मिश्र 
उस्ताद मुजरिम के घर पहुंचा, तो पूरे मकान में सन्नाटा पसरा हुआ था। मैं उस्ताद मुजरिम को खोजता हुआ, आगे बढ़ा, तो देखा कि उस्ताद मुजरिम अपने आराध्य हनुमान जी के सामने हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहे हैं। मैं दरवाजे पर खड़ा हो गया। वे हनुमान जी से विनती कर रहे थे, ‘हे भगवन! इन मतिमंदों, कूढ़मगजों, अक्ल के अंधों और बेवकूफों को समझाइए। इन्हें अक्ल दीजिए मारुतिनंदन। भला बताओ, आज जब कमाने-खाने का मौका आया, तो इनके सिर पर एक अजीब सी खब्त सवार हो गई है। एकदम खब्तुलहवासों की तरह व्यवहार कर रहे हैं। कहते हैं, न खाऊंगा, न खाने दूंगा। अंजनिपुत्र! भला यह भी कोई बात हुई। इनकी बचकानी बातों पर विरोधी मुंह छिपाकर हंसते हैं। वे सामने आकर कहते हैं, ऐसा करो, तो जानूं। वैसा करो, तो मानूं। हमारे नेता जब ऐसा और वैसा कर देते हैं, तो विरोधी मीडिया और आम जनता के सामने आकर चिल्लाने लगते हैं कि देखा..देखा..इसने ऐसा कर दिया, वैसा कर दिया। भगवन! अब आपसे कुछ छिपा तो है नहीं। इस संसार में ऐसी कौन सी बात है, जो आपसे छिपी हुई हो। इन मंदअक्लों को विश्वास ही नहीं था कि वे इतनी भारी संख्या में जीतकर चले आएंगे। जीत क्या गए, बौरा ही गए। एक तो पहले से ही ये लोग भारतीय राजनीति के लिए टेढ़े थे, जीतने के बाद तो और भी टेढ़े हो गए। पहले तो सिर्फ टेढ़े थे, लेकिन चलते सीधा थे। अब तो जीतने के बाद टेढ़े-टेढ़े चलने भी लगे। इनके टेढ़े चलने से भारतीय राजनीति की पूरी व्यवस्था ही डगमगा गई। आप तो जानते ही हैं भगवन! इनके टेढ़े चलने से भ्रष्टाचार के समुद्र में ज्वार-भाटा आने लगा है। भ्रष्ट व्यवस्था के देवराजों (इंद्र आदि देवगणों) के सिंहासन हिलने लगे हैं। अब आप ही इनकी रक्षा कर सकते हैं। भगवन! आपसे विनती है कि या तो सचमुच भ्रष्टाचार का इस देश से खात्मा कर दो या फिर इन बेवकूफों की मति फेर दो।’
इतना कहकर उस्ताद मुजरिम ने हनुमान जी के माथे पर सिंदूर का लेप लगाते हुए कहा, ‘हे पवनसुत! आप तो जानते हैं कि मैं जिंदगी भर पाकेटमार रहा। देश के नामी गिरामी शख्सियत से लेकर कल्लू पनवाड़ी तक की जेब पर हाथ साफ किया है। अंगुलियों में फंसे ब्लेड के सहारे मैंने जिंदगी भर अपनी आजीविका चलाई। खुद खाया और दूसरों का भी पेट भरा। बुढ़ापे में सोचा था कि चुनाव ही लड़ लूं। सो, दिल्ली आ गया। किसी तरह जुगाड़ करके टिकट हथियाया। कुछ तिकड़म, कुछ चालबाजी और कुछ भाग्य ने साथ दिया, तो जीत भी गया। मेरे चुनाव क्षेत्र के जितने भी पाकेटमार, चोर-उचक्के, ठग, अपराधी थे, उन्होंने मेरा खूब जमकर प्रचार किया। ज्यादातर आपराधिक प्रवृत्ति के लोग या तो मेरे चेले निकले या फिर मेरे गुरु भाइयों के चेले-चपाटे। सो, कुछ आपकी कृपा से, कुछ चेले-चपाटों की दया से और कुछ नासमझ जनता की दया-भावना के चलते काफी समर्थन मिला। अपना एक चेला तो हारने या जीतने पर गोली-बम की फुलझड़ियां छोड़ने पर भी आमादा था, लेकिन मैंने उससे कह दिया, खबरदार... जो हल्ला-गुल्ला किया तो। मैं इस देश का आम आदमी हूं, भले ही पाकेटमार हूं तो क्या हुआ। लेकिन भगवन! ऐसा चुनाव जीतने से क्या फायदा हुआ। सारा गुड़ गोबर कर दिया। भला आप ही बताइए, इस देश से भ्रष्टाचार खत्म हो सकता है क्या? गरीबी, बेकारी, भुखमरी और शोषण-दोहन की अकाल मौत हो सकती है क्या?
नहीं हो सकती..कम से कम इस पूंजीवादी व्यवस्था में तो नहीं हो सकती। यह आप भी जानते हैं, मैं भी जानता हूं और हमारे देश के वे सभी नेता जानते हैं, जो गरीबी, बेकारी, भुखमरी आदि दूर करने का वायदा करते हैं। इस बात को अगर कोई नहीं समझता है, तो वह है इस देश का आम आदमी। इस देश की कूढ़मगज जनता।’
‘भगवन! चुनाव लड़ते समय सोचा था, बुढ़ापे में विधायक बनकर कुछ कमा-खा लूंगा। भ्रष्ट व्यवस्था के सहारे बेटियों की किसी अच्छे खासे भ्रष्ट और कमाऊ लड़कों से शादी व्याह करके अपना बोझ हलका कर लूंगा। लड़कों को भी किसी कायदे का धंधा पकड़ा दूंगा। अनाप-शनाप घूस-घास लेकर कुछ पैसा जमा कर लूंगा, ताकि बुढ़ापा चैन से कट सके। लेकिन इन खब्ती लोगों ने मेरे उन सपनों पर पानी फेर दिया। पता नहीं कैसे इन सबके दिमाग में भ्रष्टाचार विरोधी कीड़ा पैदा हो गया और लगे सबको गरियाने। देखते ही देखते देश के हातिमताई बन गए। इनके हातिमताईपने की आड़ में मैंने भी सोचा कि नफा उठा लूंगा। अब जीतने के बाद इनका सादगी भरा रवैया देखकर तो ऐसा लग रहा है कि छप्पन व्यंजन से भरी थाली में किसी ने एक मुट्ठी धूल डाल दी हो।
भगवान! आपसे मेरी यह करबद्ध प्रार्थना है कि इनकी मति ही फेर दो। इनके दिमाग में घुसे भ्रष्टाचार विरोधी कीड़े को किसी भी तरह मार दो, मरवा दो या फिर आप कहें, तो यमराज जी से कुछ निवेदन करूं। बस, इन सबके दिमाग में घुसा वह कीड़ा मरना चाहिए। ऐसा होते ही अपनी तो बल्ले-बल्ले हो जाएगी।’ इतना कहकर उस्ताद मुजरिम ने हनुमान जी के चरण स्पर्श किए और पूजागृह से बाहर आ गए। मैंने आगे बढ़कर उस्ताद के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद ग्रहण किया और बिना कुछ कहे-सुने घर लौट आया।

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