अशोक मिश्र
इस देश में कभी हुआ करता था त्रेतायुग। अरे सतयुग के बाद आने वाला त्रेतायुग। उस त्रेतायुग में पैदा हुए थे शंकर सुवन केशरी नंदन। इस देवात्मा को हनुमान जी भी कहा जाता है। हनुमान जी ने अपनी आधी जिंदगी कैसे भी व्यतीत की हो, लेकिन जबसे उनका परिचय रामचंद्र जी से हुआ, तब से उन्हें बस एक ही धुन सवार थी- रामकाज कीन्हें बिना मोहि कहां विश्राम। करणीय, अकरणीय, लभ्य, अलभ्य जो कुछ भी था, वह सब कुछ रामकाज ही था। सीता की खोज में जाते समय मैनाक पर्वत ने जब वानर शिरोमणि हनुमान से विश्राम करने को कहा, तो उन्होंने विनयपूर्वक मैनाक के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उन्हें तो बस एक ही धुन थी किसी भी प्रकार हो, रामकाज करना है। यह धुन ही थी जिसने उन्हें रामचंद्र का सखा, भक्त, भाई, सचिव सब कुछ बना दिया था। उनके सखा भाव, भक्तिभाव को देखकर बाद में जनकनंदिनी भी कुछ हद तक ईष्यालु हो उठी थीं। भारतीय नारी कैसे सहन कर सकती है कि कोई उसके पति के प्रति उससे भी ज्यादा साख्यभाव रखे, भक्तिभाव रखे। वे अतुलित बलधारी होते हुए रामचंद्र के प्रति विनीत थे। वे भगवान थे, महावीर थे। उनकी लीला और महिमा अपरंपार थी। उनकी किसी से तुलना भी नहीं हो सकती है।
वह त्रेतायुग था, लेकिन यह कलियुग है। उस युग में अंजनि पुत्र महावीर थे, तो इस युग में फेसबुकवीर हैं। त्रेतायुग में भक्तिभाव का हनुमान जी बढ़कर दूसरा कोई उदाहरण खोजने पर भी नहीं मिलता, लेकिन कलियुग में फेसबुक के प्रति अनन्य भक्तिभाव लिए कोटि-कोटि फेसबुकवीर हैं, फेसबुक वीरांगनाएं हैं। इन वीरों और वीरांगनाओं की बस एक ही धुन है-‘एक पोस्ट कीन्हें बिना मोहि।’ इनकी भी भक्ति भाव, सखा भाव अप्रतिम है। ये फेसबुक की आभासी दुनिया में स्वच्छंद विचरण करते हैं, निशि-वासर, प्रात:काल, संध्याकाल, जैसे समय इनके स्वच्छंद विचरण के लिए कोई मायने नहीं रखते हैं। फेसबुक वीर और वीरांगनाएं रक्तसंबंधों, सामाजिक संबंधों को आभासी दुनिया के स्वच्छंद विचरण में बाधक मानकर उसी तरह विरक्त रहते हैं, जैसे कि कोई उच्च कोटि का साधक मोह, माया, काम, क्रोध से विरक्त रहकर परमानंद की खोज में लगा रहता है। फेसबुक वीर-वीरांगनाएं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर जैसे विकारों से विरक्त होकर बस एक पोस्ट की खोज में लगे रहते हैं। आभासी दुनिया में जहां कहीं मनोवांछित पोस्ट मिली या अपनी चौर्यकला की बदौलत किसी अन्य की मौलिक रचना को हस्तगत किया और स्वरचना प्रदर्शित करते हुए अपने फेसबुक पर पोस्ट की या प्रातिभ प्रदर्शन कर सर्जना करके पोस्ट की, तो उन्हें वैसे ही परमानंद की अनुभूति होती है, जैसे किसी साधक को लक्ष्य प्राप्त होने पर होती होगी। इन वीर-वीरांगनाओं के बाल-बच्चे, माता-पिता, पति-पत्नी और अन्य सांसारिक नाते-रिश्तेदार इनके फेसबुक प्रेम के प्रति ईर्ष्याभाव रखते हैं। फेसबुक वीरों को फेसबुकीय जगत में एक नायिका की तलाश चिरंतन काल से रही है। नायिका भेद से इन्हें रंचमात्र मतलब नहीं होता है। लुभावना चित्र देखते ही ‘इनबाक्स’ में पैठकर रसानुभूति करने लगते हैं। हां, आभासी दुनिया में वीरांगनाएं किस हेतु-अहेतु के लिए विचरती हैं, इस पर अभी अनुसंधान जारी है।
इस देश में कभी हुआ करता था त्रेतायुग। अरे सतयुग के बाद आने वाला त्रेतायुग। उस त्रेतायुग में पैदा हुए थे शंकर सुवन केशरी नंदन। इस देवात्मा को हनुमान जी भी कहा जाता है। हनुमान जी ने अपनी आधी जिंदगी कैसे भी व्यतीत की हो, लेकिन जबसे उनका परिचय रामचंद्र जी से हुआ, तब से उन्हें बस एक ही धुन सवार थी- रामकाज कीन्हें बिना मोहि कहां विश्राम। करणीय, अकरणीय, लभ्य, अलभ्य जो कुछ भी था, वह सब कुछ रामकाज ही था। सीता की खोज में जाते समय मैनाक पर्वत ने जब वानर शिरोमणि हनुमान से विश्राम करने को कहा, तो उन्होंने विनयपूर्वक मैनाक के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उन्हें तो बस एक ही धुन थी किसी भी प्रकार हो, रामकाज करना है। यह धुन ही थी जिसने उन्हें रामचंद्र का सखा, भक्त, भाई, सचिव सब कुछ बना दिया था। उनके सखा भाव, भक्तिभाव को देखकर बाद में जनकनंदिनी भी कुछ हद तक ईष्यालु हो उठी थीं। भारतीय नारी कैसे सहन कर सकती है कि कोई उसके पति के प्रति उससे भी ज्यादा साख्यभाव रखे, भक्तिभाव रखे। वे अतुलित बलधारी होते हुए रामचंद्र के प्रति विनीत थे। वे भगवान थे, महावीर थे। उनकी लीला और महिमा अपरंपार थी। उनकी किसी से तुलना भी नहीं हो सकती है।
वह त्रेतायुग था, लेकिन यह कलियुग है। उस युग में अंजनि पुत्र महावीर थे, तो इस युग में फेसबुकवीर हैं। त्रेतायुग में भक्तिभाव का हनुमान जी बढ़कर दूसरा कोई उदाहरण खोजने पर भी नहीं मिलता, लेकिन कलियुग में फेसबुक के प्रति अनन्य भक्तिभाव लिए कोटि-कोटि फेसबुकवीर हैं, फेसबुक वीरांगनाएं हैं। इन वीरों और वीरांगनाओं की बस एक ही धुन है-‘एक पोस्ट कीन्हें बिना मोहि।’ इनकी भी भक्ति भाव, सखा भाव अप्रतिम है। ये फेसबुक की आभासी दुनिया में स्वच्छंद विचरण करते हैं, निशि-वासर, प्रात:काल, संध्याकाल, जैसे समय इनके स्वच्छंद विचरण के लिए कोई मायने नहीं रखते हैं। फेसबुक वीर और वीरांगनाएं रक्तसंबंधों, सामाजिक संबंधों को आभासी दुनिया के स्वच्छंद विचरण में बाधक मानकर उसी तरह विरक्त रहते हैं, जैसे कि कोई उच्च कोटि का साधक मोह, माया, काम, क्रोध से विरक्त रहकर परमानंद की खोज में लगा रहता है। फेसबुक वीर-वीरांगनाएं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर जैसे विकारों से विरक्त होकर बस एक पोस्ट की खोज में लगे रहते हैं। आभासी दुनिया में जहां कहीं मनोवांछित पोस्ट मिली या अपनी चौर्यकला की बदौलत किसी अन्य की मौलिक रचना को हस्तगत किया और स्वरचना प्रदर्शित करते हुए अपने फेसबुक पर पोस्ट की या प्रातिभ प्रदर्शन कर सर्जना करके पोस्ट की, तो उन्हें वैसे ही परमानंद की अनुभूति होती है, जैसे किसी साधक को लक्ष्य प्राप्त होने पर होती होगी। इन वीर-वीरांगनाओं के बाल-बच्चे, माता-पिता, पति-पत्नी और अन्य सांसारिक नाते-रिश्तेदार इनके फेसबुक प्रेम के प्रति ईर्ष्याभाव रखते हैं। फेसबुक वीरों को फेसबुकीय जगत में एक नायिका की तलाश चिरंतन काल से रही है। नायिका भेद से इन्हें रंचमात्र मतलब नहीं होता है। लुभावना चित्र देखते ही ‘इनबाक्स’ में पैठकर रसानुभूति करने लगते हैं। हां, आभासी दुनिया में वीरांगनाएं किस हेतु-अहेतु के लिए विचरती हैं, इस पर अभी अनुसंधान जारी है।
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