अशोक मिश्र
हमारे देश के मजदूर-किसान भी न..एकदम बौड़म हैं बौड़म। धेले भर की अकल नहीं और अकल के पीछे लट्ठ लिए बेतहाशा भागे चले जा रहे हैं। किसानों को गुमान है कि वे देश के अन्नदाता हैं। मजदूरों को वहम है कि वे भाग्यविधाता हैं। अरे! वह दिन गए, जब किसान अन्नदाता और मजदूर भाग्य विधाता हुआ करता था। अब तो सारा देश भारत से ‘इंडिया’ और अब ‘इंडिया’ से ‘न्यू इंडिया’ होने जा रहा है। पूरी दुनिया आश्चर्य चकित होकर इस ‘न्यू इंडिया’ का चमकता ग्लोसाइन देख रही है। वाह..वाह कर रही है। दुनिया भर के बड़े-बड़े कारपोरेट घराने भारी-भरकम थैलियां लेकर दौड़े चले आ रहे हैं। उन्हें विश्वास है कि अगर कहीं बाजार है, सस्ता श्रम है, लूट-खसोट में सहायक होने वाले लेबर लॉ हैं, शोषण-दोहन की अपार संभावनाएं हैं, अनपढ़ और लतखोर मजदूर-किसान हैं, तो वह ‘न्यू इंडिया’ में ही हैं। ‘न्यू इंडिया’ तो जैसे कारपोरेट व्यापारियों का स्वर्ग है। न्यू इंडिया का चमकता चेहरा देखकर हमारे राजनीतिक भाग्य विधाता आत्ममुग्ध हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी फाइव स्टार होटल में आयोजित फैशन शो के दौरान अपनी नग्न-अर्धनग्न चिकनी काया पर पड़ती कैमरों की लाइट्स देखकर मॉडल्स भावविभोर होती हैं। इन आत्ममुग्ध और भावविभोर मॉडल्स को उस क्षण तो यही लगता है कि उनकी कंचनी काया और कैमरों की फ्लैश लाइट्स ही शाश्वत सत्य है, बाकी सब मिथ्या है।
ऐसी चमक-दमक वाली ‘न्यू इंडिया’ में हमारे देश के किसानों को देखिए, सुपरसोनिक विमानों की रेस में अपनी बैलगाड़ी दौड़ाए चले जा रहे हैं। ये किसान समझ क्यों नहीं पा रहे हैं कि मुंशी प्रेमचंद का युग बीत चुका है। ‘होरी’ और ‘धनिया’ रहे होंगे कभी किसानों के रोल मॉडल, लेकिन ‘न्यू इंडिया’ के आईकॉन बड़े-बड़े कारपोरेट घराने हैं, अबानी हैं, अडानी हैं, विजय माल्या हैं। अब ‘होरी’ और ‘धनिया’ होने के कोई मायने नहीं है। अब तो धरना-प्रदर्शन करने, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ या ‘फलाने-ढिमकाने मुर्दाबाद’ के नारे लगाने के दिन हवा हो गए। न्यू इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टैंडअप इंडिया, सिटडाउन इंडिया, धमकाऊ इंडिया, लतियाऊ इंडिया का जमाना है। जंतर-मंतर पर पैंतीस-चालीस दिन तक धरना देने और गू-मूत खाने-पीने वाले किसान अगर अपने साथियों के नरमुंडों के साथ बस एक प्यारी सी सेल्फी लेते और फेसबुक, ह्वाट्सएप, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर डाल देते, तो फिर देखते तमाशा। कम से कम दस-बीस हजार लाइक्स मिलते, चार-पांच हजार कमेंट्स मिलते ही मिलते। ठेंगा, स्माइलिंग फेस जैसे इमोजीज की तो बात ही छोड़ दीजिए। दो-तीन हजार ठेलुए टाइप के फेसबुकिये उसे शेयर करते ही करते। फिर क्या..फिर तो पूरी दुनिया में तलहलका मच जाता। डिजिटल वर्ल्ड में एक रक्तहीन क्रांति हो जाती। सरकार को झुकना पड़ता, नहीं तो फेसबुकिये, ह्वट्सएपिये, इंस्टाग्रामिये, ट्विटरिस्टवे इतना हंगामा खड़ा कर देते। किसानों की वह पोस्ट इतनी वायरल होती कि आभासी दुनिया में तहलका मच जाता। केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक की इतनी छीछालेदर और ‘थू-थू’ होती कि वह मारे शर्म के किसानों के सारे ऋण माफ कर देती। अब अगर मजदूर-किसान इक्कीसवीं सदी में पांचवीं सदी की लड़ाई का तरीका अख्तियार करेंगे, तो लोग और सरकार घंटा ध्यान देंगे।
हमारे देश के मजदूर-किसान भी न..एकदम बौड़म हैं बौड़म। धेले भर की अकल नहीं और अकल के पीछे लट्ठ लिए बेतहाशा भागे चले जा रहे हैं। किसानों को गुमान है कि वे देश के अन्नदाता हैं। मजदूरों को वहम है कि वे भाग्यविधाता हैं। अरे! वह दिन गए, जब किसान अन्नदाता और मजदूर भाग्य विधाता हुआ करता था। अब तो सारा देश भारत से ‘इंडिया’ और अब ‘इंडिया’ से ‘न्यू इंडिया’ होने जा रहा है। पूरी दुनिया आश्चर्य चकित होकर इस ‘न्यू इंडिया’ का चमकता ग्लोसाइन देख रही है। वाह..वाह कर रही है। दुनिया भर के बड़े-बड़े कारपोरेट घराने भारी-भरकम थैलियां लेकर दौड़े चले आ रहे हैं। उन्हें विश्वास है कि अगर कहीं बाजार है, सस्ता श्रम है, लूट-खसोट में सहायक होने वाले लेबर लॉ हैं, शोषण-दोहन की अपार संभावनाएं हैं, अनपढ़ और लतखोर मजदूर-किसान हैं, तो वह ‘न्यू इंडिया’ में ही हैं। ‘न्यू इंडिया’ तो जैसे कारपोरेट व्यापारियों का स्वर्ग है। न्यू इंडिया का चमकता चेहरा देखकर हमारे राजनीतिक भाग्य विधाता आत्ममुग्ध हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी फाइव स्टार होटल में आयोजित फैशन शो के दौरान अपनी नग्न-अर्धनग्न चिकनी काया पर पड़ती कैमरों की लाइट्स देखकर मॉडल्स भावविभोर होती हैं। इन आत्ममुग्ध और भावविभोर मॉडल्स को उस क्षण तो यही लगता है कि उनकी कंचनी काया और कैमरों की फ्लैश लाइट्स ही शाश्वत सत्य है, बाकी सब मिथ्या है।
ऐसी चमक-दमक वाली ‘न्यू इंडिया’ में हमारे देश के किसानों को देखिए, सुपरसोनिक विमानों की रेस में अपनी बैलगाड़ी दौड़ाए चले जा रहे हैं। ये किसान समझ क्यों नहीं पा रहे हैं कि मुंशी प्रेमचंद का युग बीत चुका है। ‘होरी’ और ‘धनिया’ रहे होंगे कभी किसानों के रोल मॉडल, लेकिन ‘न्यू इंडिया’ के आईकॉन बड़े-बड़े कारपोरेट घराने हैं, अबानी हैं, अडानी हैं, विजय माल्या हैं। अब ‘होरी’ और ‘धनिया’ होने के कोई मायने नहीं है। अब तो धरना-प्रदर्शन करने, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ या ‘फलाने-ढिमकाने मुर्दाबाद’ के नारे लगाने के दिन हवा हो गए। न्यू इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टैंडअप इंडिया, सिटडाउन इंडिया, धमकाऊ इंडिया, लतियाऊ इंडिया का जमाना है। जंतर-मंतर पर पैंतीस-चालीस दिन तक धरना देने और गू-मूत खाने-पीने वाले किसान अगर अपने साथियों के नरमुंडों के साथ बस एक प्यारी सी सेल्फी लेते और फेसबुक, ह्वाट्सएप, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर डाल देते, तो फिर देखते तमाशा। कम से कम दस-बीस हजार लाइक्स मिलते, चार-पांच हजार कमेंट्स मिलते ही मिलते। ठेंगा, स्माइलिंग फेस जैसे इमोजीज की तो बात ही छोड़ दीजिए। दो-तीन हजार ठेलुए टाइप के फेसबुकिये उसे शेयर करते ही करते। फिर क्या..फिर तो पूरी दुनिया में तलहलका मच जाता। डिजिटल वर्ल्ड में एक रक्तहीन क्रांति हो जाती। सरकार को झुकना पड़ता, नहीं तो फेसबुकिये, ह्वट्सएपिये, इंस्टाग्रामिये, ट्विटरिस्टवे इतना हंगामा खड़ा कर देते। किसानों की वह पोस्ट इतनी वायरल होती कि आभासी दुनिया में तहलका मच जाता। केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक की इतनी छीछालेदर और ‘थू-थू’ होती कि वह मारे शर्म के किसानों के सारे ऋण माफ कर देती। अब अगर मजदूर-किसान इक्कीसवीं सदी में पांचवीं सदी की लड़ाई का तरीका अख्तियार करेंगे, तो लोग और सरकार घंटा ध्यान देंगे।
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