Tuesday, August 19, 2025

या खुदा! कैसे कहूं तू आग पानी लिख।

गजल

अशोक मिश्र
हो सके तो झोपड़ी की ही जुबानी लिख
रोटियों पर फिर नई कोई कहानी लिख।
कल भरे बाजार में जो बिक गई उसको
तू किसी मजलूम की बेटी सयानी लिख।
आंख के नीचे पड़ी ये झुर्रियां मत गिन
किस तरह बिकती रही उसकी जवानी लिख।
हाल मुझ से पूछता है वो मिरे दिल का
या खुदा! कैसे कहूं तू आग पानी लिख।
वो समझता है कि वो आजाद है लेकिन
हो गई है बात ये झूठी, पुरानी, लिख।
फेंक कर पत्थर हवा में एक बच्चे ने
कल किया ऐलान जो तू वो कहानी लिख।

परिचय------------------
बलरामपुर जिले के नथईपुरवा घूघुलपुर गांव में 13 अप्रैल 1967 को मेरा जन्म हुआ। मेरे पिता दिवंगत रामेश्वर दत्त मानव मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारक और कवि थे। मैं पिछले 27-28 वर्षों से व्यंग्य लिख रहा हूं. कई छोटी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में खूब लिखा. दैनिक स्वतंत्र भारत, दैनिक जागरण और अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित अखबारों में भी खूब लिखा. कई पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी करने के बाद आठ साल दैनिक अमर उजाला के जालंधर संस्करण में काम करने के बाद लगभग दस महीने रांची में रहा. लगभग एक साल दैनिक जागरण और एक साल कल्पतरु एक्सप्रेस में काम करने के बाद साप्ताहिक हमवतन में स्थानीय संपादक, गोरखपुर से प्रकाशित न्यूज फॉक्स में समाचार संपादक और पंजाब केसरी देहरादून में उप समाचार संपादक पद पर कार्यरत रहने के बाद 27 अगस्त 2021 को पलवल से प्रकाशित होने जा रहे दैनिक देश रोजाना में समाचार संपादक के पद पर ज्वाइन किया। छह महीने बाद दैनिक देश रोजाना का संपादक बना दिया गया। तब से अद्यतन उसी पद पर कार्यरत हूं। मेरा एक व्यंग्य संग्रह 'हाय राम!...लोकतंत्र मर गया' दिल्ली के भावना प्रकाशन से फरवरी 2009 में प्रकाशित हुआ है. इसके बाद वर्ष 2013 में उपन्यास सच अभी जिंदा है भी भावना प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। पुस्तक दयानंद पांडेय समीक्षकों की नजर में का संपादन और वर्ष 2018 को वनिका प्रकाशन से व्यंग्य संग्रह दीदी तीन जीजा पांच प्रकाशित हुआ।

फूलों को शायद मैं नहीं देख पाऊंगी

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

न्यूयार्कमें 1875 को स्थापित थियोसाफिकल सोसाइटी की स्थापना में रूसी मूल की अमेरिकी नागरिक हेलेना पेत्रोव्ना ब्लावत्स्की की अहम भूमिका रही है। थियोसाफिकल सोसाइटी का संबंध आर्य समाज से भी रहा है। ब्लावत्स्की कई साल तक भारत के कई शहरों में रहीं और उन्होंने भारत में सामाजिक सुधार के प्रयास भी किए। ब्लावत्स्की का जन्म 12 अगस्त 1831 को यूक्रेन के एक शहर में हुआ था। 

इनके पिता जर्मन के राजघराने से संबंध रखते थे। ब्लावत्स्की के दादा आंद्रेई रूस के ही एक शहर के गवर्नर थे। ब्लावत्स्की ने जीवन भर भ्रमण करके अपने विचारों का प्रचार प्रसार किया। वह भारत, तिब्बत, श्रीलंका सहित दुनिया के कई देशों में गईं। कहा जाता है कि उनके विचारों में कुछ हद तक स्पष्टता नहीं थी। उनके जीवन के वृत्तांत कई जगह एक दूसरे से साम्यता नहीं रखते हैं। 

इसके बावजूद यह सच है कि ब्लावत्स्की ने अपना सारा जीवन मानव सेवा और आध्यात्मिक विचारों के प्रसार में लगा दिया था। एक बार की बात है। वह ट्रेन से यात्रा कर रही थीं। उनके पास एक मोटा सा थैला था। वह थोड़ी-थोड़ी देर बाद थैले में से मुट्ठी भर कुछ निकालती थीं और उसे खिड़की से बाहर फेंक देती थीं। साथ में यात्रा कर रहे लोगों को उनकी यह हरकत अटपटी लग रही थी। काफी समय तक उनके यही करने से एक यात्री ने पूछ ही लिया। तब ब्लावत्स्की ने कहा कि वह फूलों के बीज बाहर फेंक रही थीं। 

उस व्यक्ति ने पूछा कि इससे क्या होगा? उन्होंने कहा कि समय आने पर फूलों के यह बीच अंकुरित होंगे। तो इन फूलों को देखकर लोग खुश होंगे। उस व्यक्ति ने कहा कि क्या तुम इन्हें देखने आओगी। उन्होंने कहा कि शायद नहीं। लेकिन जिन फूलों को देखकर मुझे खुशी हुई, उन्हें भी मैंने नहीं लगाया था।

अपराधियों को सुधरने का सैनी सरकार देगी एक अवसर

अशोक मिश्र

कोई भी व्यक्ति अपराधी के रूप में पैदा नहीं होता है। हर व्यक्ति एक सामान्य इंसान के रूप में पैदा होता है, लेकिन आगे चलकर परिस्थितियां, समाज की दशाएं और मनोवृत्ति में आए विकार की वजह से आदमी अपराधी हो जाता है। एक तरह से कहा जाए कि कोई भी व्यक्ति अपराधी नहीं बनना चाहता है, लेकिन कुछ कारणों से वह अपराध कर बैठता है। यह कारण उसकी आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक भी हो सकता है और क्षणिक आवेश भी। समाज में बढ़ते अपराध को रोकने के प्रयास कानूनी और सामाजिक स्तर पर किए जाते रहे हैं। लेकिन हरियाणा की सैनी सरकार ने सामुदायिक सेवा दिशा निर्देश 2025 तैयार करके सामाजिक स्तर पर भी सुधार करने का बीड़ा उठाया है। 

सैनी सरकार ने उन अपराधियों को सुधरने का एक मौका देने का फैसला किया है जो किसी गंभीर अपराध या राष्ट्रद्रोह जैसे अपराध में लिप्त नहीं रहे हैं। यह जेलों को कैदियों के बढ़ते बोझ से बचाने का एक नायाब तरीका है। वे अपराधी जिन्होंने मामूली अपराध किए हैं और जो पेशेवर अपराधी नहीं हैं, उनको समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए एक अच्छा उपाय है। सैनी सरकार की यह नीति पहली बार अपराध करने वाले कुछ लोगों के लिए जेल की सजा को व्यवस्थित करने तथा सामाजिक रूप से उपयोगी कार्यों में बदलने के लिए बनाई गई है। 

असल में किसी अपराधी को जेल में इसलिए भी डाला जाता है ताकि उसे यह एहसास हो सके कि उसने अपराध किया है। उसने समाज के नियमों और कानून का उल्लंघन किया है। ऐसी स्थिति में ज्यादातर अपराधी अपने कृत्य के लिए ग्लानि भी महसूस करते हैं। यदि ऐसे लोगों को जेल भेजने की जगह समाज के किसी काम में लगा दिया जाए, तो समाज और प्रशासन के प्रति उनका मन साफ हो जाता है। वह भविष्य में किसी किस्म का अपराध नहीं करेंगे। सरकार ने फैसला किया है कि पहली बार और मामूली अपराध करने वालों को किसी पार्ककी देखरेख सौंपी जा सकती है। 

धर्म स्थलों की साफ-सफाई की जिम्मेदारी  दी जा सकती है। इतना ही नहीं, ऐसे अपराधियों को नदी के किनारे पेड़ लगाने, ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों में सहायता करने, विरासत स्थलों का रखरखाव करने, सार्वजनिक पार्कों की सफाई करने और स्वच्छ भारत सरीखे सामाजिक कल्याण अभियानों में योगदान देने के लिए कहा जा सकता है। इससे जेलों में अपराधियों की भीड़ में कमी आएगी। कम जोखिम वाले अपराधियों को रचनात्मक सेवा की ओर मोड़ा जा सकेगा। वैसे भी समाज में एक भ्रांति फैली हुुई है कि जेल अपराधी को सुधारने की जगह बिगाड़ती ज्यादा हैं।

Monday, August 18, 2025

मेरी प्रकाशित पुस्तकें

 बलरामपुर जिले के नथईपुरवा घूघुलपुर गांव में 13 अप्रैल 1967 को मेरा जन्म हुआ। मेरे पिता दिवंगत रामेश्वर दत्त मानव मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारक और कवि थे। मैं पिछले 23-24 वर्षों से व्यंग्य लिख रहा हूं. कई छोटी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में खूब लिखा. दैनिक स्वतंत्र भारत, दैनिक जागरण और अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित अखबारों में भी खूब लिखा. कई पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी करने के बाद आठ साल दैनिक अमर उजाला के जालंधर संस्करण में काम करने के बाद लगभग दस महीने रांची में रहा. लगभग एक साल दैनिक जागरण और एक साल कल्पतरु एक्सप्रेस में काम करने के बाद साप्ताहिक हमवतन में स्थानीय संपादक, गोरखपुर से प्रकाशित न्यूज फॉक्स में समाचार संपादक और पंजाब केसरी देहरादून में उप समाचार संपादक पद पर कार्यरत रहने के बाद 27 अगस्त 2021 को पलवल से प्रकाशित होने जा रहे दैनिक देश रोजाना में समाचार संपादक के पद पर ज्वाइन किया था। छह महीने बाद दैनिक देश रोजाना का संपादक बना दिया गया। तब से अद्यतन उसी पद पर कार्यरत हूं। मेरा एक व्यंग्य संग्रह 'हाय राम!...लोकतंत्र मर गया' दिल्ली के भावना प्रकाशन से फरवरी 2009 में प्रकाशित हुआ है. इसके बाद वर्ष 2013 में उपन्यास सच अभी जिंदा है भी भावना प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। पुस्तक दयानंद पांडेय समीक्षकों की नजर में का संपादन और वर्ष 2018 को वनिका प्रकाशन से व्यंग्य संग्रह दीदी तीन जीजा पांच प्रकाशित हुआ।




मैंने तुम्हारे साथ यह क्या कर दिया?

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

दक्षिण भारत में संत और कवि वेमना की कविताएं आज भी जनमानस में पढ़ी पढ़ाई जाती है। वैसे दक्षिण भारतीय साहित्य में संत वेमना के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है, लेकिन माना जाता है कि उनका जन्म आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले में 1652 ईस्वी में हुआ था। कुछ लोग वेमना का जन्म विभिन्न शताब्दियों में मानते हैं। वैसे वेमना का वास्तविक नाम गोना वेना बुद्धा रेड्डी बताया जाता है। 

तेलुगू साहित्य के इतिहास में वेमना की रचनाएं वेमना शतकालु नाम से संग्रहीत हैं। कहा जाता है कि बचपन में वेमना पढ़ाई लिखाई में बहुत कमजोर थे। जिस गुरुकुल में वह शिक्षा ग्रहण करते थे, उस गुरुकुल के आचार्य उनकी कम अकली के कारण परेशान रहते थे। गुरुकुल में जो कुछ पढ़ाया जाता था, वह उनके पल्ले नहीं पड़ता था। पंद्रह साल की उम्र तक वह अक्षरज्ञान तक हासिल नहीं कर पाए थे। गुरु को यह विश्वास हो चला था कि उनका यह शिष्य जीवन में कुछ नहीं कर पाएगा। 

एक दिन नदी में स्नान करने जाते समय गुरु ने कपड़े देते हुए कहा कि इसे हाथ में पकड़े रहो, ताकि कपड़ों पर मिट्टी न लग जाए। स्नान के बाद जब गुरु जी ने आवाज दी, तो वह कपड़े जमीन पर फेंककर दौड़े आए। कपड़ों पर मिट्टी लगने से नाराज गुरु ने उन्हें खड़िया मिट्टी (चॉक) देते हुए कहा कि इस पत्थर पर राम राम लिखो। वेमना उस पत्थर पर राम राम लिखने लगे। थोड़ी देर बाद चाक खत्म हो गई। फिर भी वह लिखते रहे। थोड़ी देर बाद नाखून घिस गया, फिर अंगुलियां घिसने लगीं। 

लेकिन उन्होंने राम राम लिखना नहीं छोड़ा। शाम को गुरु जी लौटे, तो देखा कि वेमना अब भी राम राम लिख रहा है, लेकिन उसकी अंगुली पूरी तरह घिस चुकी है। उन्होंने वेमना को रोते हुए गले लगा लिया और बोले, मैंने तुम्हारे साथ यह क्या कर दिया। इसके बाद वेमना ने मन लगाकर पढ़ाई की और एक संत और कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए।

ठीक से विरोध भी नहीं कर पातीं घरेलू हिंसा की शिकार महिलाएं

अशोक मिश्र

हमारे देश में घरेलू हिंसा और उत्पीड़न को लेकर शहरों की महिलाएं तो थोड़ा बहुत जागरूक हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र की ज्यादातर महिलाएं इसको लेकर सजग नहीं है। सामाजिक परंपराओं और सोच के चलते गांवों की नब्बे फीसदी महिलाएं इसे भाग्य का लेखा-जोखा मानकर जीवन भर उत्पीड़न सहती रहती है और इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाती हैं। यदि कोई महिला इसके खिलाफ आवाज भी उठाना चाहे, तो घर की बड़ी बूढ़ी महिलाएं उसको समझा बुझाकर शांत कर देती हैं। 

शनिवार को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने घरेलू हिंसा मामले की सुनवाई करते हुए टिप्पणी की है कि घरेलू हिंसा के मामले में अदालतों को शिकायत का आकलन करते समय लाइन के बीच पढ़ना जरूरी है क्योंकि ज्यादातर उत्पीड़न घर पर ही होती है और इसे साबित कर पाना महिला के लिए आसान नहीं होता है। हाईकोर्ट की यह बात बिल्कुल सही है। उत्पीड़न या घरेलू हिंसा होने पर जब मामला कचहरी तक पहुंचा है, तो घर के लोग पुरुष को ही बचाने की जुगत में लग जाते हैं। 

इसमें पीड़ित महिला की सास, ननद, देवरानी, जेठानी जैसी महिलाएं भी शामिल होते हैं। कई बार तो यह भी देखने में आया है कि उसके मां-बाप, बहन और भाभियां दबाव में या स्वेच्छा से पुरुष का ही साथ देते हैं। इस तरह के मामलों में अदालतें आम तौर पर यह देखती हैं कि पीड़ित महिला ने जो आरोप लगाए हैं, उसमें तथ्य कितने सही हैं। मामले में दम है या नहीं। ऐसे मामले में अदालत को फैसला लेते समय इन सभी परिस्थितियों का ध्यान रखना चाहिए। वैसे भी महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 में घरेलू हिंसा की परिभाषा सीमित नहीं है। अधिनियम में शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, मौखिक और आर्थिक हिंसा को भी घरेलू हिंसा के दायरे में रखा गया है। यदि कोई व्यक्ति मौखिक रूप से महिला को अपशब्द कहता है, उस को किसी भी प्रकार प्रताड़ित करता है, तो वह घरेलू हिंसा के दायरे में आता है। 

अगर किसी महिला को संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के तहत किसी प्रकार की धन-संपत्ति, रुपये पैसे प्राप्त हैं, उसका उपयोग न करने देना आर्थिक उत्पीड़न माना जाएगा। यदि किसी कारणवश दंपति में तलाक हो गया हो तो पत्नी और बच्चों के भरण पोषण के लिए व्यवस्था अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए। दरअसल, घरेलू हिंसा और वैवाहिक जीवन के सुचारू रूप से न चलने का सबसे ज्यादा प्रभाव छोटे-छोटे बच्चों पर पड़ता है। 

उनका भविष्य अधर में लटक जाता है। कई बार तो बच्चे डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं। घरेलू हिंसा का प्रभाव न केवल उनकी पढ़ाई लिखाई पर पड़ता है, बल्कि उनके भविष्य पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

Sunday, August 17, 2025

यह सीता रमैय्या की हार नहीं मेरी हार है

 बस यों ही बैठे ठाले-23-------रचनाकाल 2 अगस्त 2020

अशोक मिश्र
अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन के बाद क्रांतिकारियों (मुख्यत: अनुशीलन समिति के क्रांतिकारियों) को पहले लगा कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का उपयोग क्रांतिकारी नवयुवकों को राष्ट्रीय जनतांत्रिक क्रांति के पक्ष में संगठित करने में किया जा सकेगा। कालांतर में उनकी यह योजना ध्वस्त हो गई क्योंकि यह संगठन भी कांग्रेस का ही उप संगठन यानि गांधीवादी कांग्रेसियों की दूसरी पंक्ति ही साबित हुई। इन्हीं दिनों कांग्रेस में विप्लवी राष्ट्रवादी नेताजी सुभाष चंद्र बोस का प्रभाव बढ़ रहा था।
विप्लवी राष्ट्रवादी नेता जी सुभाष चंद्र बोस का मानना था कि स्वाधीनता राष्ट्रीय जनतांत्रिक क्रांति द्वारा ही हासिल की जा सकती है। यह तभी संभव है, जब देश की जनता इसके लिए संगठित और तैयार हो। यही वजह है कि कांग्रेस में और कांग्रेस से बाहर सक्रिय अनुशीलन समिति के शीर्ष नेताओं का पूर्ण समर्थन और सहयोग नेताजी को प्राप्त था। वे नेताजी को आगे करके अपने कार्यों को अंजाम दे रहे थे। अपनी कार्यनीतियों को लागू करने का प्रयास कर रहे थे। वर्ष 1938 में हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में जब सुभाष बाबू अध्यक्ष चुने गए, तो अनुशीलन समिति ने सुभाष बाबू को आगे करके मजदूरों, किसानों, छात्रों और युवाओं का संगठन खड़ा करके उन्हें मार्क्सवाद और लेनिनवाद के दर्शन और सिद्धांतों से लैस करने में जुट गए।
हरिपुरा कांग्रेस में सुभाष बाबू के अध्यक्ष चुने जाने के बाद महात्मा गांधी समझ गए कि यदि सुभाष बाबू के बढ़ते प्रभाव को रोका नहीं गया, तो कांग्रेस क्रांतिकारियों के हाथ में चला जाएगा या फिर उनका प्रभाव कम हो जाएगा। सुभाष बाबू की कार्यशैली उन्हें पसंद नहीं आ रही थी। उन्हीं दिनों अनुशीलन समिति के शीर्ष नेताओं में से एक केशव प्रसाद शर्मा के क्रांतिकारी प्रयासों से बाराबंकी के हड़हा और लखनऊ के कान्य कुब्ज कालेज में एक-एक महीने के प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए गए। हड़हा (बाराबंकी) शिविर का उद्घाटन कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ने किया। यह देखकर महात्मा गांधी, गांधी भक्त कांग्रेसी नेताओं के हाथों के तोते उड़ गए।
वे समझ गए कि यदि कुछ किया नहीं गया, तो कांग्रेस से उन्हें हाथ धोना पड़ेगा। यही वजह है कि अगले वर्ष 1939 में त्रिपुरा अधिवेशन में जब सुभाष बाबू ने चुनाव लड़ने का फैसला किया, तो महात्मा गांधी खुलकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सामने आ खड़े हुए और उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को अपना उम्मीदवार घोषित किया। हालांकि अधिवेशन के समय सुभाष बाबू बहुत बीमार थे। उन्हें स्ट्रेचर पर लादकर अधिवेशन में लाया गया। गांधी भक्त कांग्रेसी नेताओं को लगता था कि महात्मा गांधी के विरोध के बाद सुभाष बाबू चुनाव हार जाएंगे। लेकिन जब चुनाव परिणाम आया, तो पता चला कि महात्मा गांधी के लाख विरोध के बावजूद सुभाष बाबू को 1580 मत मिले थे। महात्मा गांधी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैय्या को 1377 मत हासिल हुए थे। 203 मतों से सुभाष बाबू कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव जीत गए थे। तब इस पर महात्मा गांधी ने बयान देते हुए कहा था, यह सीता रमैय्या की हार नहीं मेरी हार है।
इसके बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ महात्मा गांधी ने एक और चाल चली। उन्होंने कांग्रेस कार्यकारिणी सदस्यों से कहा कि जो नेताजी के कार्य करने के तौर तरीकों से सहमत नहीं हैं, वे कांग्रेस से हट सकते हैं। नतीजा यह हुआ कि चौदह सदस्यीय कार्यकारिणी में से बारह सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। जवाहर लाल नेहरू तटस्थ रहे। केवल नेताजी के बड़े भाई शरद कुमार बोस (शरद बाबू) उनके साथ रहे। इतना ही नहीं, गांधी भक्त गोविंद बल्लभ पंत ने सम्मेलन में एक प्रस्ताव रखा कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस कार्यकारिणी का चुनाव गांधी जी की सहमति के बिना न करें। (मालूम हो कि उस समय महात्मा गांधी कांग्रेस के साधारण सदस्य तक नहीं थे।)
यह सीधा सीधा नेताजी सुभाष चंद्र बोस और कांग्रेस के संविधान के खिलाफ था। इतिहास में इस प्रस्ताव को पंत प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है। उन दिनों स्टालिन पंथी कम्युनिष्ट सुभाष बाबू और क्रांतिकारियों के खिलाफ थे। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के जय प्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे कथित समाजवादियों ने महात्मा गांधी का ही साथ दिया और वे पंत प्रस्ताव मामले में तटस्थ बने रहे। नतीजा यह हुआ कि जयप्रकाश और लोहिया के विश्वासघात के कारण नेता जी सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ लाया गया पंत प्रस्ताव पारित हो गया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफे के कुछ ही महीने के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस और स्वामी सहजानंद सरस्वती कांग्रेस से निष्कासित कर दिए गए और कांग्रेसियों के मजदूरों, किसानों और छात्रों के संगठनों और आंदोलन में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
इसके अगले वर्ष जब कांग्रेस का रामगढ़ बिहार (अब झारखंड में) में अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में गांधी और उनके भक्त भारतीय पूंजीपतियों के व्यावसायिक हितों की पूर्ति के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अधिक से अधिक सुविधाएं हासिल करने के लिए ब्रिटिश हुकूमत पर समझौते के लिए दबाव डालने लगे थे। तब अनुशीलन समिति के शीर्ष नेताओं ने कांग्रेस के अधिवेशन स्थल के ठीक सामने समझौता विरोधी अधिवेशन आयोजित किया। यह समझौता विरोधी सम्मेलन नेताजी सुभाष चंद्र बोस और स्वामी सहजानंद सरस्वती के संयोजकत्व में आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में अनुशीलन समिति और एचएसआरए के शीर्ष नेताओं ने भाग लिया। योगेश चंद्र चटर्जी, केशव प्रसाद शर्मा जैसे क्रांतिकारियों ने भाग लिया।
स्वामी सहजानंद सरस्वती और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के समर्थक भी इसमें भाग लेने आए थे। इसी सम्मेलन में 19 मार्च 1940 को आरएसपीआई का गठन किया। प्रख्यात क्रांतिकारी योगेश चंद्र चटर्जी इसके महामंत्री बनाए गए। मालूम हो कि 19 मार्च 1940 से पहले ही अनुशीलन समिति और एचएसआरए के शीर्ष नेताओं को ब्रिटिश हुकूमत गिरफ्तार कर चुकी थी। जो नेता बचे थे, उन्हें रामगढ़ समझौता विरोधी सम्मेलन के बाद लौटते समय या कुछ दिनों बाद गिरफ्तार कर लिया गया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस, स्वामी सहजानंद सरस्वती, योगेश चंद्र चटर्जी और केशव प्रसाद शर्मा आदि क्रांतिकारी विभिन्न जगहों और विभिन्न तिथियों में पकड़कर जेल में डाल दिए गए। एक बात और कहना चाहता हूं कि जब रामगढ़ में आरएसपीआई गठन किया गया, तो सुभाष बाबू ने फारवर्ड ब्लाक का आरएसपीआई में विलय का प्रस्ताव रखा था, लेकिन अनुशीलन समिति के अधिकांश सदस्यों ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। इसका कारण यह था कि फारवर्ड ब्लाक के लक्ष्य स्पष्ट नहीं थे। वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक क्रांति द्वारा देश को स्वाधीन करना चाहते थे, लेकिन आजादी के बाद क्या होगा? इस संबंध में नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनके फारवर्ड ब्लाक के साथी बहुत स्पष्ट नहीं थे।
(समाप्त)

जो तुमने दिया, उसे वापस कर दूंगा

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

गौतम बुद्ध ने अपने उपदेश में प्राणि मात्र के कल्याण की बात की है। वह हर मायने में अहिंसा का पालन करने पर जोर देते थे। किसी का उपहास उड़ाना भी उनकी नजर में हिंसा थी। वह कहा करते थे कि किसी को दुख पहुंचाना, सबसे बुरा कर्म है। वह मन को पवित्र रखने की सीख देते हुए कहते थे कि यदि मनुष्य अपने मन को पवित्र रखना सीख जाए, तो दुनिया भर में हिंसक घटनाएं होनी बंद हो जाएंगी। 

मन की चंचलता ही कई बार हिंसा के लिए प्रेरित करती है। महात्मा बुद्ध वर्षाकाल को छोड़कर बाकी समय भ्रमण ही किया करते थे। एक बार की बात है। वह किसी गांव से गुजर रहे थे। उनके साथ उस समय कुछ शिष्य भी थे। गांव वालों ने जब उनकी वेशभूषा को देखा तो वह उनका उपहास उड़ाने लगे। गांव वालों को भला बुरा कहते और उपहास उड़ाते देखकर तथागत वहीं शांत चित्त से खड़े हो गए। 

गांववालों ने काफी देर तक उनको भला बुरा कहा और उपहास उड़ाया। लोग जब थक गए, तो गौतम बुद्ध ने उन गांववालों से कहा कि अभी कुछ और करना है या नहीं। अगर कुछ और नहीं करना है, तो मैं अगले गांव जाऊं? गांव वाले काफी हैरान हुए कि हमने इस आदमी का इतना अपमान किया और यह शांत खड़ा हुआ है। एक व्यक्ति ने कहा कि आपका हम लोगों ने इतना उपहास उड़ाया, अब आप क्या करेंगे? महात्मा बुद्ध ने कहा कि वही करूंगा जो पिछले गांव वालों के साथ किया था। 

पिछले गांववाले मेरे लिए खूब खाने पीने की वस्तुएं लाए थे। खूब स्वागत सत्कार किया था, लेकिन मैंने उनसे कहा कि मेरा पेट भरा हुआ है। मैंने सब वापस कर दिया। अब आप लोगों ने मेरे साथ जो किया, वह सब मैं आपको वापस करता हूं। यह सुनकर गांववाले बहुत शर्मिंदा हुए और माफी मांगी।

शहर को साफ-सुथरा रखना हर नागरिक की जिम्मेदारी

अशोक मिश्र

मिलेनियम सिटी के नाम से विख्यात गुरुग्राम में फैली गंदगी के बारे में कुछ सप्ताह पहले मीडिया और सोशल मीडिया पर खूब चर्चा हुई थी। फ्रांसीसी महिला मैथिलडे आर ने तो इसे सुअरों के रहने लायक बताते हुए सोशल मीडिया पर एक पोस्ट डाली थी। इसको लेकर काफी चर्चा भी हुई थी। एक पूर्व सेनाधिकारी ने कूड़े के ढेर पर अपना भोजन तलाशते पशुओं की एक वीडियो डालकर गुरुग्राम की गंदगी पर अपना रोष भी जाहिर किया था। मिलेनियम सिटी गुरुग्राम में फैली गंदगी और कूड़े के ढेर से शायद ही कोई इनकार करे। सच बात तो यह है कि हर चमचमाते शहर का दो चेहरा होता है। 

शहर में चमचमाते होटल, शापिंग माल्स और पाश कालोनियां बाहर से देखने पर मन मोह लेती हैं। लेकिन इन चमचमाती कालोनियों, होटलों और शापिंग माल्स के पीछे जाकर देखिए। आगे से चमचमाने के अनुपात में ही पीछे कूड़ा कचरा पड़ा होता है। यह सब अपने आगे का हिस्सा बहुत साफ रखते हैं, लेकिन इस सफाई के दौरान निकला कूड़ा-कचरा पीछे ही फेंक देते हैं। अगर उधर से कोई शख्स निकलना चाहे तो उसे अपनी नाक पर रुमाल रखने को मजबूर होना पड़ेगा। यह लगभग हर शहर की सच्चाई है। लेकिन जिस गुरुग्राम की गंदगी को लेकर कुछ दिनों पहले तक इतनी हाय-तौबा मची हुई थी। 

उसी बीच सर्बिया के एक युवक चुपचाप गुरुग्राम को साफ करने में भी लगा हुआ था। पिछले एक साल से गुरुग्राम में सर्बिया के नागरिक 32 वर्षीय लेजर जेनकोविक रोज एक फावड़ा और बड़े कचरे का बैग लेकर निकल पड़ते हैं गुरुग्राम की किसी गली को साफ करने। वैसे तो लेजर वर्ष 2018 को भारत में माडलिंग करने आए थे। छह साल तक बेंगलुरु में रहकर मॉडलिंग की, लेकिन पिछले साल वह गुरुग्राम आ गए थे। तब से वह रोज ‘एक दिन एक गली’ अभियान चला रहे हैं। वह सुबह निकलते हैं और जो भी गली उन्हें गंदी दिखाई देती है, तो वह उसे साफ करने में जुट जाते हैं। 

वह यह नहीं सोचते हैं कि लोग क्या कहेंगे? शुरुआत में तो कुछ लोगों ने उन्हें सिरफिरा समझकर तंज भी किया था, लेकिन अब लोग उनकी मुहिम में हंसी-खुशी से हिस्सा ले रहे हैं। गुरुग्राम के लोग जब उनसे पूछते हैं कि तुम क्या कर रहे हो? तो वह पूछने वाले से ही पूछ बैठते हैं कि आप खुद से पूछिए कि आप क्यों नहीं कर रहे हैं? वैसे भी वह इससे पहले ऋषिकेश में सफाई अभियान चला चुके हैं। यह एक नई मिसाल है। यदि लेजर से ही सीखकर लोग सिर्फ अपनी गली को ही साफ सुथरा रखने का प्रण कर लें, तो शायद देश का हर शहर साफ सुथरा और प्रदूषण रहित होगा। लोग स्वच्छ वातावरण में सांस ले सकेंगे।

Saturday, August 16, 2025

स्वाधीनता दिवस पर अपने शहीद क्रांतिकारियों को हरियाणा ने किया याद

अशोक मिश्र

पंद्रह अगस्त को हम आजादी के उन्यासीवें वर्ष में प्रवेश कर जाएंगे। देश को आजाद कराने के लिए हजारों रणबांकुरों ने अपनी शहादत दी, ब्रिटिश हुकूमत की लाठियां गोलियां खाईं, कारागार की यातनाएं सही। न जाने कितने लोगों को फांसी दी गई। भारत का स्वाधीनता संग्राम बीसवीं सदी का सबसे लंबा चलने वाला संग्राम था। भारत में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पहला संगठित विद्रोह अत्तिंगल विद्रोह था, जो 1721 में हुआ था। इस विद्रोह में मालाबार के लोगों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के 140 सैनिकों की हत्या कर दी थी और अंजेंगो किले को घेर लिया था। इसके बाद तो छिटपुट विद्रोह होते रहे, लेकिन 1857 में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ रजवाड़ों ने संगठित विद्रोह किया। इसके बाद होने वाले विद्रोह में जनता भी शामिल होती गई। 

भारत के स्वाधीनता संग्राम में हरियाणा (तब पंजाब प्रांत) की भूमिका रही है। वर्तमान हरियाणा की यदि बात की जाए, तो राव तुलाराम और राजा नाहर सिंह 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी शहादत देने वालों में अग्रगण्य हैं। इन्होंने बड़ी बहादुरी से अंग्रेजी फौजों का मुकाबला किया और अंतत: अपनी शहादत देकर अमर हो गए। हरियाणा के क्रांतिकारियों में सर छोटूराम का नाम गर्व से लिया जाता है। इसके अलावा सुल्तान सिंह गहलोत, शेर सिंह कादयान, मतू राम हुड्डा, गुलाब सिंह बुराक, धर्मपाल सिंह भालोठिया, देवक राम सूरह, बंसी लाल, भोपाल सिंह आर्य, बुजा राम खीचर ने भी स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेकर अपना नाम प्रदेश के इतिहास में अमर कर लिया। 

1857 की जंग में मेवात के दस हजार लड़ाकों ने अपनी शहादत देकर अपना नाम अमर कर लिया। ऐसे रणबांकुरों और अपनी मातृभूमि पर प्राण न्यौछावर करने वालों की जन्म और कर्मभूमि पर 15 अगस्त को स्वाधीनता दिवस बड़े धूमधाम से मनाया जाएगा। 15 अगस्त को पूरे प्रदेश के लोग अपने पूर्वज शहीदों को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि देकर उनको नमन करेंगे। देश भर के क्रांतिकारियों और स्वाधीनता संग्राम सेनानियों की मूर्तियों पर फूल चढ़ाकर उनके प्रति आभार व्यक्त किया जाएगा क्योंकि इनकी ही शहादत के परिणाम स्वरूप हमें आजादी हासिल हुई थी। 

प्रदेश की सैनी सरकार ने भी बड़े पैमाने पर स्वाधीनता दिवस कार्यक्रम आयोजित किए हैं जिसमें सरकार के नुमाइंदे भाग लेंगे। प्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष, सांसद, मंत्रियों, विधायकों को प्रत्येक जिले में होने वाले कार्यक्रमों की जिम्मेदारी सौंपी गई है। विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ-साथ प्रदेश की सभी संस्थाएं स्वाधीनता दिवस बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाएंगे। स्कूल-कालेजों में बड़े पैमाने पर कार्यक्रम होंगे और झांकियां निकाली जाएंगी।