Tuesday, March 13, 2012

सर जी! बागी ‘पान सिंह तोमर’ बनना चाहता हूं

-अशोक मिश्र
संपादक जी, पिछले दिनों गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने कहा था कि उन्होंने राजनीति में आकर गलती की है। अगर वे टेनिस खिलाड़ी ही रहते, तो शायद ज्यादा सफल होते। चिदंबरम की ही तरह मुझे लगता है कि पत्रकारिता में आकर मैंने भी गलती की है। इससे अच्छा था कि मैं डाकू ‘पान सिंह तोमर’ बन गया होता। पत्रकारिता लोगों को कितना भरमाती है, लुभाती है, इसे आप बेहतर समझते हैं। एक अनियतकालीन पत्रिका ‘सास-बहू के झगड़े’ से कैरियर शुरू करते समय मैंने सोचा था कि मंत्री, विधायकों और अधिकारियों पर ही नहीं, आम जनता पर भी अपना ‘भौकाल’ टाइट रहेगा। जिधर से निकलूंगा, लोग स्वागत करेंगे, पलकों पर बिठाएंगे, लेकिन अफसोस ऐसा कुछ भी नहीं हुअ। सर जी! जिन दिनों गृहमंत्री के सपने के बिखर रहे थे, वे मीडिया के सामने जार-जार रो रहे थे, उसी समय मेरे भीतर भी कुछ टूट रहा था, बिखर रहा था। सोचा था कि रिपोर्टिंग के दौरान विभिन्न पार्टियों के पक्ष में खबर लिखकर मोटा नांवा (रकम) पीटूंगा। उन्हीं कार्यक्रमों को अटैंड करूंगा, जहां से कीमती ‘डग्गा’ मिलने का जुगाड़ होगा, लेकिन पत्रकारिता की नैतिकता और जनपक्षधरता के हितैषी होने के कारण न आपने कभी खुद खाया, न मुझे खाने दिया।

इससे निराश होकर मैंने बागी ‘पान सिंह तोमर’ बनने का फैसला किया है। आप कभी नहीं चाहेंगे कि मैं बागी ‘पान सिंह तोमर’ बनूं, लेकिन मैं पान सिंह तोमर बनकर रहूंगा। सर जी! आपको एक बात बताऊं। मैं बचपन से ही जिद्दी रहा हूं। जब मैं नौ-दस साल का था, तो पता नहीं कैसे, मुझ पर राष्ट्रपिता बनने की सनक सवार हो गई थी। मैंने तो बचपन में गांधी जी की तरह झुककर चलने की आदत भी डाल ली थी। इसके चलते कई बार पीठ में भयानक पीड़ा भी झेली थी। जब मैं किशोरावस्था में पहुंचा, तो पाया कि लोगों में गांधी जी के प्रति पुरानी वाली श्रद्धा नहीं रही। युवाओं का रोल मॉडल गांधी नहीं, गोडसे हो गया है। कुछ दल तो बाकायदा उसे राष्ट्रनायक बनाने पर तुले हुए थे। बस फिर क्या था! मेरा मन गांधी से हटकर गोडसे की ओर झुकने लगा। लेकिन अफसोस, मैं गोडसे बन पाता, उससे पहले ही आपके एक लेख ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैं पत्रकार बनने की ठानकर पत्रकारिता के कुरुक्षेत्र में कूद पड़ा। खुदा के फजल से पत्रकार भी बन गया, लेकिन अब मैं पत्रकार नहीं, बागी पान सिंह बनना चाहता हूं।

सर जी! ‘पान सिंह तोमर’ तो मैं उसी दिन बन जाता, जिस दिन आपने ‘जानेमन, जाने जिगर, जाने बहार छबीली’ से मिलने जाने के लिए मांगने पर एक दिन का अवकाश नहीं दिया था। ‘पान सिंह तोमर’ तो मैं तब भी बनना चाहता था, जब एक विदेशी कंपनी के प्रेस कान्फ्रेंस को आपके मना करने के बावजूद ‘डग्गे’ की लालच में कवर करने पहुंच गया था। इसके लिए आपकी डांट भी खाई थी। ‘पान सिंह तोमर’ तो उसी दिन बन जाता जिस दिन छबीली से नैन मटक्का करते देख घरैतिन ने मेरी ऐसी धुलाई की थी कि मैं तीन-चार दिन तक उठने-बैठने को तरसता रहा। सर जी, मैं बागी पान सिंह तोमर बनने को चंबल की ओर जा रहा हूं। वहां जाकर पहले एक गिरोह बनाऊंगा, जमींदारों और पंूजीपतियों को लूटूंगा। मैं आपसे वायदा करता हूं, लूटी गई रकम का दस प्रतिशत आपको ईमानदारी के साथ देता रहूंगा। जिस दिन मुझे लगा कि आप भी पूंजीपति हो गए हैं, तो उस दिन आपको भी लूट लूंगा और बाद में दस फीसदी रकम आपको वापस भी कर दूंगा। मैं बागी पान सिंह तोमर बन सकूं, इसके लिए मुझे तीन महीने के अवैतनिक अवकाश की जरूरत है। तीन महीने के भीतर अगर मैं सच्चा बागी बन सका, तो कोई बात नहीं। अगर मैं अपने मकसद में नाकामयाब रहा, तो तीन महीने बाद आकर दोबारा नौकरी ज्वाइन कर लूंगा। आशा है कि आप तीन महीने का अवकाश स्वीकृत कर मुझे अनुग्रहीत करेंगे। आपका ही- खुरपेंचानंद।

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