शिक्षक दिवस पर बचपन को याद कियाअशोक मिश्र
आज शिक्षक दिवस है। माता-पिता के बाद अगर जीवन में किसी की सबसे बड़ी भूमिका होती है, तो वह शिक्षक ही होता है। शिक्षक केवल स्कूल-कालेज में ही नहीं होता है, जीवन के किसी भी मोड़ पर यदि कोई जीवन की शिक्षा दे जाए, वह भी गुरु होता है। आज जब मैं पीछे लौटता हूं, तो मुझे याद आता है लखनऊ के आलमबाग थाना क्षेत्र में स्थित छोटा बरहा मोहल्ले का बरहा जूनियर हाई स्कूल। अनगिनत दृश्य इस समय मेरी आंखों के सामने चलचित्र की तरह दिखाई दे रहे हैं। सत्या दीदी, सुरेंदर कौर, बीना सिंह, मुन्ना सिंह राठौर, हरिश्चंद्र यादव, एसपी शुक्ल यानी शिव प्रसाद शुक्ल आदि। स्कूल से बाहर बाबू जी और भइया।

दरअसल, इन लोगों ने मेरे शरीर में समाए हुए खोट को गढ़ि-गढ़ि काढ़ने का भरसक प्रयास किया। जब-जब मौका मिला, काढ़ा, खूब काढ़ा, लेकिन खोट मुहझौंसा कुछ ऐसा समाया हुआ था कि आठवीं में रिजल्ट देते समय पांचवीं से आठवीं तक क्लास टीचर रहीं सुरेंद्र कौर को भी कहना पड़ा, भइया! मुझसे जितना बन पड़ा, जैसा बन पड़ा, तुम्हें इंसान बनाने की कोशिश की। अब आगे तुम पर और तुम्हारे नए अध्यापकों पर निर्भर है कि वह तुम्हें कितना इंसान बना सकते हैं। मार्कशीट लेते हुए मैं रो पड़ा था। आज का समय होता तो शायद ‘दुनिया को सुधारकर, धरती का बोझ उतारकर,पर हम नहीं सुधरेंगे’ गाते हुए कह देता-दीदी, आपने जितना इंसान बना दिया, उससे आगे काम चला लूंगा। इससे ज्यादा इंसान बनने की वैसे भी जरूरत नहीं है।सुरेंद्र दीदी हमें साइंस और अंग्रेजी पढ़ाती थीं। एसपी शुक्ल जी हमें भूगोल, हिंदी और संस्कृत पढ़ाते थे। वह अक्सर कहा करते थे जैसे राम को हनुमान पसंद थे, वैसे ही मुझे अशोक पसंद है। वैसे मैं अपनी कक्षा का होशियार (हो-सियार) विद्यार्थी था, लेकिन कोई ऐसा भी दिन शायद जाता हो जिस दिन मैं पिटता नहीं था।
अब मुझे याद आ रहा है। रिसेस चल रहा है। सारे लड़के-लड़कियां या तो खेलने में मस्त हैं, या फिर घर से लाया गया टिफिन खत्म करने में लगे हैं। लड़कियां ग्रुप बनाएं बाहर धीमे-धीमे स्वर में पता नहीं क्या फुसफुसा रही हैं। बीच-बीच में उनकी खिलखिलाहट भी सुनाई दे रही है। और मैं? पूरी तरह खाली क्लास में बीना की साइंस कापी दिनेश के बस्ते में, सलीम का ज्यामेट्री बाक्स मालती सिंह के बस्ते में रखने के बाद अभी-अभी कंचन का बस्ता क्लास की छत पर फेंककर आया हूं। शांति का बस्ता दिनेश की जगह और दिनेश का बस्ता छठी क्लास में रखकर अभी अभी लौटा हंू। अभी पूरी क्लास को अस्त-व्यस्त भी नहीं कर पाया था कि रिसेस खत्म होने की घंटी बज गई। घंटी बजते ही मैं बाहर की ओर भागा। जब सारे बच्चे क्लास में पहुंचे, तो मैंने प्रवेश किया ताकि लोग जान जाएं कि मैं सबसे बाद में आया हूं।
साइंस पढ़ाने सुरेंद्र मैडम आई हैं। वहीं क्लास सब्जी मंडी बना हुआ है। कोई अपनी भूगोल की कापी को रो रहा है, तो किसी को अपना ज्यामेट्री बाक्स नहीं मिल रहा है। कोई पगलाया हुआ है कि उसका बस्तवै गायब है। सुरेंद्र कौर के सामने दिक्कत यह है कि वह पढ़ाएं या यहां जो महाभारत मची है, उसको शांत कराएं। पंद्रह-बीस मिनट बाद जब सब कुछ शांत हुआ, तो अपराधी को खोजा जाने लगा। किसने किया, किसने किया की राग भैरवी के बीच दिनेश ने कहा, दीदीजी, जब मैं रिसेस में पानी पीकर खेलने जा रहा था, तो अशोक कंचन के बस्ते से कुछ निकाल रहा था। बस क्या था? मुझ जैसे मासूम पर टूट पड़ा सुरेंद्र कौर का कहर। कितने बेंत पड़े यह न मैडम ने गिने न मुझे गिनने की फुरसत थी। सजा मिली, दो क्लास बाहर कान पकड़कर खड़े होने की। फिर तो दो पीरियड तक जो भी टीचर उधर से गुजरता। मंदिर में टंगे घंटे की तरह बजा जाता। यह लगभग रोज का सीन था। घर पहुंचता तो अगर भइया होते, तो राजेश जाकर उनके सामने कच्चा चिट्ठा खोल देता। फिर भइया भी मुझे इंसान बनाने पर तुल जाते। तस्मै श्री गुरवे नम:।