आयुष्मान भारत-प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) की नीतियों में हरियाणा सरकार ने बदलाव किया है। अब पीएमजेएवाई के अंतरगत आने वाले लोग 11 बीमारियों का इलाज निजी अस्पतालों में नहीं करा सकेंगे। इन ग्यारह बीमारियों में कूल्हा या घुटना बदलना, हरनिया, कान के पर्दे का आपरेशन, अपेंडिक्स का आपरेशन शामिल है। इसके अलावा टॉंसिल, गले की समस्याओं जैसे कई और समस्या से पीड़ित लोगों का इलाज निजी अस्पतालों में नहीं होगा।
सरकार ने इन रोगों के इलाज पर होने वाले खर्च को कम करने के लिए यह कदम उठाया है। पीएमजेएवाई के लाभार्थियों को अब तक प्रदेश के 650 निजी अस्पतालों में इलाज कराने की सुविधाएं मिल रही थीं। सरकारी आंकड़ा बताता है कि प्रदेश में लगभग सात सौ सरकारी अस्पताल हैं। इन सरकारी अस्पतालों में 119 किस्म की बीमारियों का इलाज होता था। नए सरकारी आदेश के बाद इन बीमारियों की संख्या 130 हो जाएगी। वैसे सरकार पीएमजेएवाई पर खर्च होने वाली रकम को घटना चाहती है और सरकारी चिकित्सा तंत्र का पूर्ण उपयोग करना चाहती है, यह किसी भी मायने में गलत नहीं है।
हर सरकार को यह हक हासिल है कि वह अपने खर्चों की समीक्षा करे और जरूरत के मुताबिक उसमें कटौती करे। लेकिन प्रदेश सरकार का यह फैसला कुछ मामलों में विचार की मांग करता है। प्रदेश के सात सौ सरकारी अस्पतालों की दशा का भी राज्य सरकार को ध्यान में रखना चाहिए। सवाल यह है कि जिन ग्यारह किस्म की बीमारियों का इलाज निजी अस्पतालों की जगह सरकारी अस्पताल में कराने का आदेश दिया गया है, उस हालत में सरकारी अस्पताल क्या यह बोझ उठाने को तैयार हैं। सरकारी अस्पताल में वह सभी चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध हैं जो निजी अस्पताल मुहैया कराते हैं।
सरकारी अस्पतालों की हालत यह है कि चिकित्सा और आपरेशन में काम आने वाली मशीनें या तो हैं नहीं या अगर हैं, तो वह किसी कबाड़ की तरह अस्पताल के किसी कोने में पड़ी हुई हैं। कहीं मशीने हैं, तो उनको संचालित करने वाले टेक्नीशियन नहीं है। कहीं डॉक्टर नहीं हैं, तो कहीं चिकित्सा कर्मी नहीं। नर्स हैं, तो अटेंडेंट नहीं हैं। कहीं लैब नहीं है, तो कहीं चिकित्सा के उपकरण का अभाव है। ऐसी स्थिति में जब सरकारी अस्पतालों में नई चिकित्सा का बोझ बढ़ेगा, तो क्या स्थिति होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
अव्यवस्था और चिकित्सा कर्मियों की कमी की वजह से पहले से ही कराह रहे सरकारी अस्पतालों के सिर पर पड़ने वाला नया बोझ वे कितना संभाल पाएंगे, यह तो समय ही बताएगा। वैसे तो यह फैसला सरकार ने कुछ सोच समझ कर ही लिया होगा, लेकिन सरकारी अस्पतालों पर बढ़ने वाले बोझ को भी ध्यान में रखना चाहिए था।
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