Friday, October 3, 2025

जब साड़ी ली ही नहीं, तो दाम कैसा?

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

संत तिरुवल्लुवर को तमिल साहित्य में महान संत और रचनाकार का दर्जा दिया गया है।  इनका जन्म कब हुआ था, ऐसा अभी तक निर्धारण नहीं किया जा सका है। साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर तिरुवल्लुवर का जन्म दो सौ से तीस ईसापूर्व माना जाता है। उनका मानना था कि कोई भी गृहस्थ जीवन जीते हुए भी एक पवित्र जीवन जी सकता है। 

इसके लिए उसे वन में जाकर तपस्या करने या गृहस्थ जीवन त्यागकर साधु बनने की जरूरत नहीं है। उनकी पत्नी ने उनके आदेश-निर्देश का जीवन भर पालन किया। वह हमेशा सादा जीवन उच्च विचार के हिमायती रहे। वह जीवनयापन के लिए जुलाहे का काम करते थे। वह कपड़ा बुनने के बाद उसे बाजार में बेचकर हुई कमाई से ही परिवार चलाते थे। 

एक दिन की बात है। उन्होंने एक साड़ी बुनी और उसे बेचने के लिए बाजार चले गए। बाजार में एक व्यक्ति आया और उसने उस साड़ी का दाम पूछा। संत तिरुवल्लुवर ने उस साड़ी का दाम दो रुपये बताया। उस व्यक्ति ने साड़ी के दो टुकड़े कर दिए और पूछा कि अब साड़ी का क्या दाम है? संत ने कहा कि एक-एक रुपये। उस व्यक्ति ने फिर साड़ी के चार टुकड़े कर दिए और दाम पूछा। 

संत ने कहा कि आठ आने। उस आदमी ने चारों टुकड़ों के एक-एक टुकड़े करने के बाद दाम पूछा तो संत ने बताया कि चार आने। इस तरह वह आदमी साड़ी के टुकड़े करता गया और दाम पूछा गया। संत तिरुवल्लुवर बड़े धैर्य से उसका दाम बताते रहे। अंत में उस व्यक्ति ने कहा कि अब तो इस साड़ी की कोई कीमत ही नहीं रह गई, फिर भी मैं दो रुपये देता हूं। संत ने कहा कि तुमने साड़ी ली ही नहीं, तो दाम कैसा? यह सुनकर वह व्यक्ति बहुत लज्जित हुआ।



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