Friday, February 28, 2025

रूस के नगर सेठ का पाखंड

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र


लियो टालस्टाय रूस से प्रसिद्ध लेखक थे। उन्होंने रूसी जनता के जीवन की सच्ची झांकी अपने लेखन में प्रस्तुत की है। हमारे देश में जिस तरह मुंशी प्रेमचंद को किसानों और गरीबों की व्यथा-कथा को प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त माना जाता है, ठीक उसी तरह लियो टालस्टाय के लेखन में रूसी जनता के दुख-दर्द झलकते हैं। 

उन्होंने मेरा बचपन और मेरा विश्वविद्यालय नाम से दो आत्मकथाएं लिखी हैं और उसमें जो कुछ और जैसा भोगा है, उसको बड़ी साफगाई से प्रस्तुत किया है। एक बार वे चर्च गए। उन्होंने सोचा कि शांत वातावरण में प्रार्थना सुन सकूंगा और कर भी सकूंगा। उन्होंने वहां जाकर देखा कि एक व्यक्ति ईसा की मूर्ति के आगे सिर झुकाकर प्रार्थना कर रहा है। वह आदमी कह रहा था कि हे भगवान! मैंने काफी अपराध किए हैं। ये अपराध वैसे तो क्षमा के लायक नहीं हैं, लेकिन मुझे माफ कर देना। 

यह व्यक्ति नगर का सबसे धनवान व्यक्ति था। यह सुनकर उन्हें लगा कि यह कितना महान व्यक्ति है, जो अपने गुनाहों को ईसा के आगे स्वीकार कर रहा है। तभी उस व्यक्ति की निगाह टालस्टाय पर पड़ी। उसने पूछा-अभी मैंने जो कहा, उसे आपने सुना क्या? तो टालस्टाय ने कहा कि मैंने पूरा सुना। 

उस व्यक्ति ने कहा कि आपको मेरी बात सुननी नहीं चाहिए थी। लेकिन इस बात का उल्लेख किसी से मत करना क्योंकि यह मेरे और परमेश्वर के बीच की बात थी। दुनिया वालों के लिए यह बात नहीं थी। 

इस पर टालस्टाय ने कहा कि आपके अपराधों की स्वीकारोक्ति सुनकर लगा था कि आप महान व्यक्ति हैं। लेकिन यह बात कहकर आपने बता दिया कि वास्तव में आपको अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है।


मिठाई के जार में रख दिया चूहा

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

ब्रिटेन के दक्षिण वेल्स के कार्डिफ शहर में 13 सितंबर 1916 को प्रसिद्ध उपन्यासकार और हास्य व्यंग्य लेखक रोआल्ड डाहल का जन्म हुआ था। इनके पिता का परिवार नार्वे से ब्रिटेन आया था। डाहल जब तीन साल के थे, तब इनकी एक बड़ी बहन की सात साल की उम्र में मौत हो गई थी। यह सदमा उनके पिता शायद बर्दाश्त नहीं कर सके और कुछ सप्ताह के बाद उनकी भी मौत हो गई। 

उनके पिता अपने बेटे को खूब पढ़ाना लिखाना चाहते थे, इसलिए अपने पति की इच्छा को पूरी करने के लिए रोआल्ड डाहल का उन्होंने लांडाल्फ शहर के एक स्कूल में भर्ती कराया। यह यहां बहुत ज्यादा दिन नहीं पढ़ सके। बड़े होकर इन्होंने सेना में विंग कमांडर का पद हासिल किया और विश्व युद्ध में भाग लिया। इसी के बाद डाहल ने साहित्य में प्रवेश किया। इन्होंने बाल साहित्य पर बहुत काम किया।

इनकी एक प्रसिद्ध किताब है माटिल्डा। इस पुस्तक के बारे में कहा जाता है कि किताब की घटनाएं इनके जीवन से जुड़ी हैं। यह जब सात साल के थे, तब इन इनका नाम लांडाल्फ के एक स्कूल में लिखाया गया। जिस रास्ते से यह आते जाते थे। उस रास्ते में रंग-बिरंगी मिठाइयों की दुकान पड़ती थी। डाहल और उनके चार साथी रोज उस दुकान पर जाते, मिठाइयों को देखते और घर चले जाते। जब पैसा होता तो खरीद भी लेते थे। 

एक दिन डॉहल ने मिठाई की जार में मरा हुआ चूहा डाल दिया। दुकान की मालकिन शिकायत लेकर स्कूल पहुंची और उसने चौथी, पांचवीं और छठी क्लास के बच्चों में डाहल को पहचान लिया। स्कूल में इनकी पिटाई हुई, तो इनकी मां पीठ पर बेंत के निशान देख लिया। बस, क्या था गुस्साई हुई स्कूल पहुंची और उनका नाम उस स्कूल से कटवा दिया।

Thursday, February 27, 2025

हॉकी खिलाड़ी रूप सिंह को प्रिंसिपल से मिला उपहार

 बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

सेना में मेजर रहे हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले ध्यानचंद के छोेटे भाई थे कैप्टन रूप सिंह। मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले में 8 सितंबर 1908 में बैंस राजपूत घराने में पैदा हुए रूप सिंह ने हॉकी के मैदान पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया था। उन्होंने 1932 और 1936 के ओलंपिक खेलों में भारत के लिए स्वर्ण पदक जीते थे। 

उन्होंने लॉस एंजिल्स ग्रीष्मकालीन ओलंपिक 1932 में जापान के खिलाफ तीन गोल और अमेरिका के खिलाफ दस गोल किए थे। उनकी प्रारंभिक पढ़ाई लिखाई ग्वालियर के विक्टोरिया स्कूल में हुई थी। उन दिनों देश पर अंग्रेजों का शासन था। 

अंग्रेजी स्कूलों में भारतीय छात्र-छात्राओं को बहुत मुश्किल से एडमिशन मिलता था। रूप सिंह ने अपनी प्रतिभा के बल पर विक्टोरिया स्कूल में दाखिला पाया था। बात उन दिनों की है, जब वह छठवीं क्लास में पढ़ते थे, तब उन्होंने हॉकी खेलना शुरू किया था। 

पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ वह खेलकूद में भी आगे थे। यही वजह थी कि प्रिंसिपल का वह चहेता बन गए थे। हॉकी बहुत बढ़िया खेलते थे। वह स्कूल में ही प्रैक्टिस किया करते थे। एक दिन स्कूल के बगल में रहने वाला एक आदमी बहुत गुस्से से तमतमाता हुआ स्कूल पहुंचा। उसने प्रिंसिपल से गुस्से में कहा कि तुम्हारे स्कूल के एक छात्र ने इतनी तेजी से हॉकी की बॉल मेरी दीवार पर मारी है कि दीवार चटक गई है। गुस्से से बोलने वाला पड़ोसी भी अंग्रेज ही था। 

प्रिंसिपल समझ गए कि यह काम किसने किया होगा। किसी तरह उन्होंने उस पड़ोसी को समझा-बुझाकर घर भेजा। बाद में उन्होंने रूप सिंह बैंस को बुलाकर एक हॉकी बॉल उनको पुरस्कार के रूप में दी। अपने प्रिंसिपल के प्रोत्साहन की बदौलत एक दिन रूप सिंह ने ओलंपिक में भारत को स्वर्ण पदक दिलाया।





जाओ! सिक्के को कुएं में डाल दो

 बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

इनसान जब तक मेहनत करके कुछ हासिल नहीं करता है, तब तक उसे किसी भी वस्तु का वास्तविक मूल्य नहीं पता होता है। वह जान ही नहीं पाता है कि जिन वस्तुओं का वह उपयोग कर रहा है, उसके निर्माण में कितना श्रम और पैसा लगा है। उसे तो लगता है कि जिस वस्तु या सुख-सुविधाओं का उपयोग कर रहा है, वह उसके लिए ही बनाई गई है। वह उसका जब और जैसा चाहे उपयोग कर सकता है। वह उस वस्तु या सुविधाओं की बेकद्री भी करता है, लेकिन जिस वस्तु में उसका श्रम लगा हो, उसको वह सहेजकर रखता है। 

एक शहर में व्यापारी रहता था। उसका एक पुत्र था, लेकिन घर वालों के लाड़-प्यार ने उसे लापरवाह बना दिया था। व्यापारी ने काफी प्रयास किया कि उसका लड़का उसके व्यापार में रुचि ले, व्यापार की गूढ़ बातों को सीखे, समझे ताकि उसके बाद उसका बेटा व्यापार को संभाल सके। 

एक दिन आजिज आकर उसने अपने बेटे से कहा कि उसे घर में खाना तभी मिलेगा, जब वह कुछ कमाकर लाएगा। यह सुनकर लड़का भागा भागा अपनी मां के पास गया। मां ने उसे एक रुपये का सिक्का दिया। उसे लेकर वह व्यापारी के पास गया। 

व्यापारी ने कहा कि इसे कुएं में डाल आओ। लड़के ने सिक्का कुएं में डाल दिया। दूसरे दिन फिर यही हुआ। उसने अपनी बहन से एक रुपया लिया और पिता के पास गया। पिता ने इस सिक्के को भी कुएं में डालने को कहा। 

बेटे ने वही किया। इस तरह कुछ दिन बीत गए। अब सबने पैसे देने से मनाकर दिया। तो वह पैसे कमाने निकला। दिन भर कड़ी मेहनत के बाद 25 पैसे मिले, उसे लेकर पिता के पास गया। 

पिता ने कहा कि कुएं में डाल दो। 

इस पर बेटे ने कहा कि मैं अपनी मेहनत की कमाई को कुएं में क्यों डाल दूं। पिता ने बेटे को गले से लगा लिया और कहा कि अब तू मेरा व्यापार संभाल सकता है।





Wednesday, February 26, 2025

एडवर्ड ने प्रेमिका के लिए छोड़ा साम्राज्य

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र
एक साल से भी कम समय तक ग्रेट ब्रिटेन और औपनिवेशिक भारत के सम्राट रहे एडवर्ड अष्टम का पूरा नाम एडवर्ड अल्बर्ट क्रिश्चियन जॉर्ज एंड्रयू पैट्रिक डेविड था। एडवर्ड अष्टम का जन्म 23 जून 1894 को इंग्लैंड में हुआ था। एडवर्ड अष्टम को इंग्लैंड और भारत की गद्दी पिता जार्ज पंचम की मृत्यु के बाद हासिल हुआ था। इन्हें ड्यूक आफ विंडसर के रूप में भी जाना जाता है।

एडवर्ड अष्टम को महान प्रेमियों की कोटि में गिना जाता है जिन्होंने अपनी प्रेमिका से शादी करने के लिए इतना बड़ा साम्राज्य ठुकरा दिया था। जिस समय की यह घटना है, उस समय आधी दुनिया पर एडवर्ड अष्टम का राज्य था। लेकिन अपनी प्रेमिका से शादी करने के लिए एडवर्ड ने इतने बड़े साम्राज्य को भी ठोकर मार दिया था। एडवर्ड एक सामान्य नागरिक की तरह रहना पसंद करते थे। उन्हे शाही तामझाम कम पसंद था। 

सन 1920 के आसपास उन्होंने इंग्लैंड के गरीबों के बीच जाकर काम किया था। सन 1936 में जार्ज पंचम की मौत के बाद राजा बनाया गया। इसी बीच उनकी मुलाकात इंग्लैंड के एक व्यवसायी की पत्नी वॉलिस सिंपसन से हुई। एडवर्ड को सिंपसन से प्यार हो गया। उन्हीं दिनों सिंपसन की अपने पति से पट नहीं रही थी और तलाक होने वाला था। यूनाइटेड किंगडम के सम्राट को इस तरह सिंपसन के प्रति प्यार दिखाना, किसी को पसंद नहीं आया। 

उनके प्रेम का विरोध तत्कालीन प्रधानमंत्री बैल्डविन, विपक्ष के नेता विस्टन चर्चिल और चर्च के प्रधान पादरी ने किया। सबने कहा कि यह शादी नहीं हो सकती है। बात जब सिंपसन और साम्राज्य में से एक को चुनने की आई तो उन्होंने जनाकांक्षाओं के विपरीत सिंपसन को ही चुना। इस तरह एडवर्ड ने अपना नाम महान प्रेमियों में लिखवा लिया।








पहले जूते और दरवाजे से माफी मांगो

अशोक मिश्र

क्रोध इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है। जब इंसान के ऊपर क्रोध हावी होता है, तो वह आगा-पीछा नहीं सोच पाता है। वह यह नहीं सोच पाता है कि उसके क्रोध करने से उसे और दूसरे लोगों को क्या नुकसान हो सकता है, परेशानी हो सकती है। जहां क्रोध होता है, वहां विवेक नहीं रह सकता है। विवेकहीन व्यक्ति को जीवन में सफलता भी नहीं मिलती है। क्रोधी व्यक्ति सफलता के लिए तरस जाता है। इस संदर्भ में एक कथा कही जाती है। 

किसी गांव में एक संत रहते थे। संत लोगों की समस्याओं को अपनी शक्ति भर दूर करने का प्रयास करते थे। जो लोग अपनी समस्याएं लेकर उनके पास आते थे, वह उन कारणों की खोज करते और सामने वाले को उसका उपाय बता देते थे। एक दिन एक व्यक्ति संत के पास आया। उसने बाहर खड़े लोगों को पहले तो धकियाया। फिर उसने अपना जूता उतारना चाहा, लेकिन जूते के तस्मे (फीता) कसा हुआ था,तो जल्दी से नहीं निकला। उसे गुस्सा आ गया। उसने किसी तरह जूता निकाला और पैर पटकते हुए जूते को दूर फेंक दिया। 

इसके बाद वह आगे बढ़ा और उसने दरवाजे को जोर से धक्का दिया। उसने संत को प्रणाम किया और कहा कि मैं आपको अपनी समस्या बताने आया हूं। 

संत ने उसे देखते ही कहा कि तुम्हारी समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। उस व्यक्ति ने पूछा-क्यों? संत ने कहा कि क्रोधी व्यक्ति की समस्या कोई नहीं सुलझा सकता। अभी तुमने बाहर अपने जूते पर अपने क्रोध प्रकट किया। उसके बाद दरवाजे पर। जाओ पहले उनसे माफी मांगो। 

यह सुनकर उस व्यक्ति ने कहा कि वह तो वस्तु हैं। संत ने कहा कि यदि तुम जूते और दरवाजे को वस्तु मानते तो गुस्सा क्यों करते? जो अपने गुस्से पर काबू नहीं पा सकता है,उसकी कोई भी समसया हल नहीं सकती है। यह सुनकर वह चुप रह गया।




Tuesday, February 25, 2025

हमें सुख-दुख दोनों का परित्याग करना चाहिए

अशोक मिश्र

सुख और दुख जीवन के दो पहलू हैं। यह प्रकृति की द्वंद्वात्मकता है। प्रकृति में अगर प्रकाश है, तो यह निश्चित है कि कहीं न कहीं अंधकार मौजूद है। अगर प्रकृति में प्रकाश का महत्व है, तो उसका कारण अंधकार ही है। यदि अंधकार न हो, तो प्रकाश का कोई महत्व नहीं है। यही हालत मनुष्य के जीवन में आने वाले सुख-दुख का है। यदि जीवन में दुख है, तो वह स्थायी नहीं है। ठीक उसी तरह सुख भी स्थायी नहीं है। एक बार की बात है। स्वामी विवेकानंद के पास एक महिला आई और उसने स्वामी जी से कहा कि मैं जीवन से तंग आ गई हूं। मैंने जीवन भर दुख ही देखे हैं। जीवन भर संघर्ष किया है। कभी सुख का एहसास नहीं हुआ। ऐसी स्थिति में मैं इस जीवन से ऊब गई हूं। मैं अब भगवान को पाना चाहती हूं। स्वामी जी कोई उपाय बताइए। 

यह सुनकर स्वामी विवेकानंद ने कहा कि मनुष्य के जीवन में अगर दुख है, तो कभी न कभी सुख जरूर आएगा। लेकिन जो व्यक्ति अपने जीवन में दुख ही दुख मानता है, उसे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती है। 

उस महिला ने कहा कि मैं सचमुच दुखी हूं। तभी आपकी शरण में आई हूं। दुख मुझे घृणित और परेशान करने वाला लगता है। 

तब स्वामी विवेकानंद ने कहा कि जीवन में सुख और दुख लगे रहते हैं। कभी सुख आता है, तो कभी दुख। दुख और सुख दोनों घृणित हैं। दोनों मन में आसुरी प्रवृत्ति पैदा करते हैं क्योंकि दोनों जुड़वा भाई हैं। जो सुख और दुख की परवाह किए बिना संतुष्ट रहता है, उसे ही ईश्वर की प्राप्ति होती है। जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते रहते हैं। इनसे घबराना नहीं चाहिए। 

यह सुनकर महिला ने कहा कि मैं आपकी बात समझ गई। 

तब स्वामी जी ने कहा कि हमें सुख और दुख दोनों का परित्याग करना चाहिए।




Sunday, February 23, 2025

नोबल पुरस्कार विजेता होने से पहले मां हूं


अशोक मिश्र

फ्रू मार्टा ओउली नामक उपन्यास की शुरुआत ‘मैं अपने पति के प्रति बेवफा रही हूं’ से करने वाली नार्वे की उपन्यासकार सिग्रिड अनसैट की इस रचना को छापने से प्रकाशकों ने पहले मना कर दिया था। बाद में जब अनसैट की ख्याति बढ़ी तो प्रकाशकों ने मांगकर पुस्तक को प्रकाशित किया। अनसैट का जन्म 20 मई 1882 में डेनमार्कमें हुआ था। जब वह दो साल की थीं, तब उनके माता-पिता नार्वे चले गए थे। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति क्रिस्टिन लैवरन्सडैटर है। इस उपन्यास में मध्य युग में नॉर्वे के जीवन के बारे में एक महिला के जन्म से लेकर मृत्यु तक के अनुभवों को तीन खंड में चित्रित किया गया है। उन्हें 1928 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। जब उन्हें नोबल पुरस्कार देने की घोषणा की गई, तो बहुत सारे पत्रकार उनके घर पहुंचे। उस समय रात हो चुकी थी। पत्रकारों ने किसी के निजी जीवन और रात होने का भी ख्याल नहीं रखा। हालांकि, उस समय तक उपन्यासकार अनसैट को नोबल पुरस्कार दिए जाने की बात पता चल चुकी थी। पत्रकारों ने जब उनके घर का दरवाजा खटखटाया तो थोड़ी देर बाद सिग्रिड अनसैट ने दरवाजा खोला। पत्रकारों ने उनसे कुछ पूछना चाहा, लेकिन तभी उन्होंने कहा कि आप लोगों के इतनी रात आने का मकसद मैं समझ सकती हूं। लेकिन मुझे माफ करें। यह समय अपने बेटे को दूध पिलाने का है। यह समय उसके दूध पीकर सो जाने का है। मैं नोबल पुरस्कार मिलने से काफी खुश हूं, लेकिन मां होने के नाते मैं अपने दायित्व को नहीं भूल सकती हूं। आप लोग कल सुबह आइए। मैं आपकी बातों को जवाब दूंगी। यह कहकर अनसैट ने विनम्रता से पत्रकारों के सामने हाथ जोड़ दिए। पत्रकार उनकी यह बात सुनकर भावविभोर हो गए।

Saturday, February 22, 2025

निराला की मां भीख मांगेगी तो गला दबा दूंगा


अशोक मिश्र

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला छायावादी काव्यधारा के प्रमुख कवियों में से एक थे। छायावादी कवियों में जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला प्रमुख माने जाते हैं। निराला का जन्म 21 फरवरी 1899 को बसंतपंचमी के दिन पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर में हुआ था। वैसे निराला का मूल गांव उन्नाव जिले का गढ़ाकोला गांव था। उनके पिता राम सहाय तिवारी मेदिनीपुर में नौकरी करते थे। कहते हैं कि निराला फक्कड़ स्वभाव के थे। उनमें आत्मसम्मान का भाव प्रबल था। निराला का जीवन हमेशा संघर्षमय ही रहा। एक बार की बात है। उन्हें अपनी पुस्तक की रायल्टी में प्रकाशक से बारह सौ रुपये हासिल हुए। उन दिनों बारह सौ रुपये ठीक-ठाक रकम हुआ करती थी। रायल्टी जेब में रखकर वह रिक्शे पर घर के लिए निकले। रास्ते में एक बूढ़ी महिला ने उनको देखकर कहा, बेटा, इस गरीब को कुछ भीख दे दो।

 यह सुनकर निराला ने रिक्शा रुकवाया और उसके पास पहुंचे। निराला ने कुछ कहने की जगह उस बूढ़ी औरत की गरदन पकड़ ली और कहा कि तुम सूर्यकांत त्रिपाठी को बेटा कह रही हो और भीख मांग रही हो। तुम निराला की मां होकर भीख कैसे मांग सकती हो। यह सुनकर बूढ़ी महिला सकपका गई। फिर निराला ने उस महिला की गरदन छोड़ते हुए कहा कि यदि मैं आपको पांच रुपये दे दूं, तो कब तक भीख नहीं मांगोगी। उसने कहा कि आज भर। उन्होंने कहा कि यदि दस रुपये दे दूं तो? महिला ने कहा कि दो दिन। निराला ने जेब से सारे रुपये निकाले और उसे देते हुए कहा कि खबरदार, आज के बाद भीख मांगी, तो गला दबा दूंगा। इसके बाद वह रिक्शे से महादेवी वर्मा के घर पहुंचे और उनसे रिक्शे का किराया दिलावाया। रिक्शेवाले ने महादेवी को सारा किस्सा बता दिया।




Friday, February 21, 2025

बीसवीं सदी के महान एथलीट थे जिम थोर्प

अशोक मिश्र

अमेरिका के महान खिलाड़ी जेम्स फ्रांसिस थोर्प का जन्म 28 मई 1887 हुआ माना जाता है। स्वीडन के राजा गुस्ताव वी ने तो इन्हें बीसवीं सदी में दुनिया का महान एथलीट कहा था। यह ओलंपिक में किसी एक खेल में बंधकर नहीं रहे। इन्होंने सभी तरह के खेलों में भाग लिया और स्वर्ण पदक जीता था। बात सन 1912 में स्वीडन के स्टॉकहोम में हुए समर ओलिंपिक्स की है। इन्होंने इस ओलिंपिक में डेकाथलॉन और पेंटाथलॉन दोनों में स्वर्ण पदक जीता था। जब ओलिंपिक की शुरुआत हो रही थी जिम थोर्प बहुत उत्साहित थे। उन्हें अपनी प्रतिभा पर पूरा विश्वास था। लेकिन जब उनके खेलने की बारी आई, तो उन्हें पता चला कि उनके जूते गायब हैं। किसी ने उनके जूते चुरा लिए थे। उन्होंने किसी तरह एक जोड़ी जूते का प्रबंध किया, लेकिन दोनों जूते बेमेल थे। एक उनके पैर के हिसाब से ढीला था। उन्हें लगा कि दौड़ते समय यह जूता निकल भी सकता है। अब क्या किया जाए। तभी उन्होंने देखा कि एक जोड़ी मोजा वहां रखा हुआ था। उन्होंने ढीले जूते वाले पैर में दो मोजे पहन लिए। यह थोड़ा सही था। इसी जूते को पहनकर उन्होंने उस ओलिंपिक्स की 15 प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया और आठ प्रतिस्पर्धाओं में स्वर्ण पदक जीते। पूरी दुनिया उनकी प्रतिभा और जुनून की कायल हो गई। लेकिन कहते हैं कि सफलता के पीछे कई बार दुर्भाग्य भी चला करता है। इसके कुछ साल बाद उन्होंने एक क्लब की ओर से बेसबाल खेलकर उन्होंने पांच डालर कमाए। इसकी भनक एक पत्रकार को लग गई। नतीजा यह हुआ कि उनसे सारे पदक ओलिंपिक संघ ने छीन लिए। जो खिलाड़ी दूसरे नंबर पर था, उसने भी पदक लेने से इनकार कर दिया। तीस साल बाद ओलिंपिक संघ ने जिम थोर्प को उनके पदक वापस किए।