Wednesday, January 14, 2015

भारत स्वच्छ अभियान और फैशनेबल महिलाएं

अशोक मिश्र
वे भारत स्वच्छ अभियान में भाग लेने के लिए इकट्ठा हुई थीं। सोने-चांदी और हीरों के आभूषण से लकदक..मानो किसी फैशन परेड में भाग लेने आई हों। भीषण सर्दी में भी कुछ दर्शी, कुछ पारदर्शी पोशाकों में वे गुजरे जमाने की फिल्म तारिका जीनत अमान लग रही थीं। इस भीड़ में कुछ प्रेम चोपड़ा, रंजीत, गुलशन ग्रोवर और शक्ति कपूर किस्म के खल पात्र (विलेन) भी शामिल थे। अभियान में भाग लेने आए ज्यादातर नेता और कार्यकर्ता तो दर्शन लाभ और बतरस की लालच में इर्द-गिर्द मंडरा रहे थे। तभी भीमकाय शरीर वाली मिसेज बत्रा गाड़ी से उतरीं। मिस चतुर्वेदी ने मोहिनी मुस्कान बिखेरते हुए उनका स्वागत किया। गर्मजोशी भरा स्वागत देखकर मिसेज राठौर 'हुंह...Ó कहकर बुदबुदाती हुई भीड़ से थोड़ा दूर खिसक गईं।
'आज आप थोड़ा लेट हो गईं, मिसेज बत्रा! हम लोग आपका इंतजार ही कर रहे थे।Ó यह मिसेज अग्रवाल थीं, शहर के सबसे बड़े उद्योगपति की अर्धांगिनी।
मिसेज अग्रवाल की बात सुनकर मिसेज बत्रा कुछ झेंप-सी गईं। उन्होंने फुसफुसाते हुए कहा, 'क्या करूं, भाभी जी। इस मरी काम वाली के पेट में आज ही दर्द होना था। सुबह काम पर ही नहीं आई। बाद में फोन आया कि काम वाली बीमार है, पेट दर्द हो रहा है। किसी तरह सारा काम मैनेज किया और फिर भागी-भागी आई।Ó
बात मिस चतुर्वेदी ने सुन ली। वह भी इस फुसफुसी वार्तालाप में शामिल हो गईं। बोली, 'इन बाइयों ने हम लोगों का जीना हराम कर रखा है। जब मर्जी हुई, एक फोन कर दिया, आज बेटा बीमार है, आज पति को बुखार है। मतलब इनकी बहानेबाजियों से जी तंग हो गया है। झाडू पोछे वाली से दो बरतन साफ करने को कहो, तो हजार नखरे। बर्तन धोने वाली बाई का काम मैं क्यों करूं? किचन वाली बाई से कहो?Ó
मोटी थुलथुल मिसेज बत्रा ने कहा, 'यार! क्या बताऊं। एक दिन मेरे 'हब्बीÓ का बड़ा मन हुआ मेरे हाथ के बने पोहे खाने का। मैं किचन में गई, तो देखा चार बर्तन सिंक में जूठे पड़े हैं। कई साल बाद तो किचन में गई थी। मेरा वीपी हाई हो गया, बाइयों को थोड़ी लताड़ लगा दी। बस, बाइयों ने हड़ताल कर दी। मैंने भी उन्हें भाव नहीं दिया। अगले दिन दो कमरों में झाडू-पोछा करने के बाद बदन ऐसा टूटने लगा कि मुझे लगा, अगर मैंने और कुछ किया, तो गिर पडूंगी। बत्रा साहब को फोन किया, तो उन्होंने एंबुलेंस मंगाई और तुरंत गुडग़ांव के हास्पिटल में भर्ती कराया। तीन दिन हास्पिटल में रहना पड़ा। काफी मनाने के बाद बाइयों ने काम करना शुरू तो किया, लेकिन अब बारह सौ के बदले डेढ़ हजार देने पड़ते हैं। जरा-सी झाडू, पोछा, बर्तन धोने वाली बाइयों के इतने नखरे? मैं तो तंग आ गई हूं।Ó
तभी भीड़ में से कोई चिल्लाया, 'मीडिया वाले आ गए। फोटोग्राफर आ गए।Ó सबने एक बार अपने चेहरे और बालों पर अपने हाथ फिराकर व्यवस्थित होने का अंदाजा लगाया। फिर सबने अपने-अपने झाडू पकड़ लिए और सड़क बुहारने लगीं। दूसरे दिन सभी अखबारों के पेज तीन पर इन सबके चेहरे चमक रहे थे।

No comments:

Post a Comment