Saturday, January 17, 2015

मोदी सरकार की संघ से बढ़ती दूरियां

अशोक मिश्र 
लगता है, इतिहास एक बार फिर दोहराया जाने वाला है। सन 1998 में जब भाजपा के इतिहास पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी सरकार बनाई, तो उसके कुछ ही दिनों बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन पर दबाव डालना शुरू कर दिया था कि वे उसकी नीतियों के मुताबिक शासन का एजेंडा तय करें। तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने जब संघ की नीतियों के मुताबिक चलने से इंकार कर दिया, तो पूरी भाजपा और संघ के रिश्तों में तल्खी आती चली गई। वाजपेयी और संघ के बीच आई तल्खी का फायदा उठाया, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने। फरवरी सन 2002 में गुजरात के गोधरा में हुए दंगे पर मोदी को राजधर्म की शिक्षा देने वाले अटल बिहारी वाजपेयी अपने ही हिसाब से चलते रहे। वाजपेयी की सरकार आई, गई, लेकिन उन्होंने संघ को उतनी ही अहमियत दी जितनी कि उनके हिसाब से देनी चाहिए थी। इस बीच गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में और संघ की नीतियों को समर्थन देने वाले कार्यकर्ता के रूप में मोदी संघ के नजदीक आते गए। बाद में तो संघ ने कट्टर हिंदुत्ववादी समझे जाने वाले लाल कृष्ण आडवानी को भी दरकिनार करके मोदी को प्रमुखता दी। नतीजा यह हुआ कि मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित किए गए और आज वे प्रधानमंत्री भी हैं। भारतीय राजनीतिक परि²श्य से स्वास्थ्य के चलते धीरे-धीरे अटल बिहारी वाजपेयी ओझल होते गए।
आज ठीक वैसी ही स्थितियां नरेंद्र मोदी के सामने मौजूद हैं। संघ और मोदी सरकार के रिश्तों में तल्खी आती जा रही है। कुछ समय पहले मीडिया में खबरें यहां तक आई कि संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों के नेताओं के विवादास्पद बयानों से आजिज आकर प्रधानमंत्री ने संघ के मुखिया मोहन भागवत के सामने पद त्यागने तक की बात कही। उनकी इस बात का प्रभाव यह हुआ कि धर्मांतरण जैसे मुद्दों पर संघ और उसके सहयोगी दलों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े। उसे घरवापसी जैसे मुद्दों पर तल्ख स्वरों को नम्र करना पड़ा। कई कार्यक्रमों को भी रद करना पड़ा।मोदी और संघ के बीच पैदा हुई दरार अब दिनों दिन चौड़ी होती जा रही है। संघ और भाजपा के बीच समन्वय बिठाने वाले सहसरकार्यवाह कृष्ण गोपाल की नाराजगी इस बात का प्रमाण है। संघ के सहसरकार्यवाह कृष्ण गोपाल के मुताबिक,प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही ठीक कार्य कर रहे हों, लेकिन उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों से संघ संतुष्ट नहीं है। वहीं मोदी संघ से भाजपा में आए या संघ में ही रहने कुछ नेताओं के बार-बार विवादित बयान देने से खुश नहीं हैं। वे अपने ही कई मंत्रियों को कड़े शब्दों में यह चेतावनी दे चुके हैं कि वे विवादास्पद बयान देने से बचें, वरना उनके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है, लेकिन यह चेतावनी भी कारगर होती दिखाई नहीं दे रही है। वे गाहे-बगाहे मोदी के लिए मुसीबत खड़ी करते रहते हैं।
एक तरफ जहां मोदी अपने ही कुछ सहयोगियों से परेशान हैं, तो वहीं दूसरी तरफ संघ भी मोदी के कुछ सहयोगियों को पसंद नहीं कर रहा है। संघ मोदी मंत्रिमंडल के कुछ फैसलों से भी नाखुश बताया जाता है। संघ अपने उदयकाल से ही स्वदेशी का हिमायती रहा है। वह आयातित वस्तुओं और दर्शन का विरोधी माना जाता रहा है। राष्ट्रवादी विचारों से ओत-प्रोत संघ कतई नहीं चाहता है कि बीमा क्षेत्र में पूंजी निवेश करके बहुराष्ट्रीय कंपनियां यहां अपना रोजगार करें और भारतीय पूंजी सिमटकर अपने देश चली जाएं। संघ तो मोदी सरकार की भूमि अधिग्रहण अध्यादेश से भी खुश नहीं है। संघ और उससे जुड़े दूसरे संगठन इस अध्यादेश को किसान विरोधी मानता है। मोदी सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश का विरोध वामपंथी दलों के साथ-साथ बसपा, सपा जैसी पार्टियां भी कर रही हैं। इनका मानना है कि यह अध्यादेश पूंजीपतियों को कृषि भूमि भी अधिग्रहीत करने की इजाजत देता है। सरकारी साठगांठ से किसी भी किसान को उसकी भूमि से वंचित किया जा सकता है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध तो भाजपा के ही मजदूर संगठन और स्वदेशी जागरण मंच जैसे अनुषांगिक संगठन करते रहे हैं। मोदी और संघ के बीच सामंजस्य न बैठने की वजह से भविष्य में क्या होगा, यह कहना तो बड़ा मुश्किल है। लेकिन इतना तो तय है कि यदि ऐसा ही रहा, तो संघ के प्रिय मोदी नहीं रहेंगे।

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