अशोक मिश्र
संसार एक मृगतृष्णा है। जिस तरह रेगिस्तान में प्यासा मृग चमकीले रेत को पानी समझकर भागता फिरता है, उसी प्रकार इंसान भी अपनी तमाम इच्छाओं के भ्रमजाल में उलझकर जीवन भर भटकता रहता है। इच्छाएं व्यक्ति को शांत बैठने नहीं देती हैं। अगर किसी के पास दो है तो वह हमेशा उसे चार करने की जुगत में ही लगा रहता है। इन इच्छाओं के चलते इंसान कभी शांति से जीवन नहीं गुजार पाता है।
यदि शांति चाहिए, तो इच्छाओं को त्यागना होगा। जो इच्छाओं को त्याग देता है, वह सुखी जीवन बिताता है। किसी राज्य का एक राजा था। वह हमेशा चिंतित रहता था। देखते ही देखते बीमार पड़ गया। राज्य के एक से बढ़कर एक वैद्य बुलाए गए। सबने भिन्न भिन्न तरह की दवाइयां दी, कई तरह के उपाय बताए। लेकिन राजा ठीक नहीं हुआ।
राजा और उसके दरबारी बड़े चिंतित थे। लेकिन किसी उपाय से राजा का रोग दूर नहीं हो रहा था। उसी समय राज्य में एक साधु आया। उसने राजा की बीमारी के बारे में सुना, तो वह राजा को देखने पहुंच गया। उसने राजा का गंभीरता से निरीक्षण किया। उसके बाद राजा से बोला, आपका रोग शारीरिक नहीं, मानसिक लग रहा है। राजा ने कहा कि हां, मुझे भी यही लगता है। मैं हमेशा चिंताग्रस्त रहता हूं।
राजा से साधु ने कहा कि यदि आप ऐसे आदमी को ले आएं जो पर्याप्त समृद्ध हो, सफल हो और शांत भी हो। बस, फिर क्या था, पूरे राज्य में सैनिक और कर्मचारी दौड़ाए गए। कुछ दिनों बाद सारे खाली हाथ लौट आए। तब साधु ने कहा कि मैं जानता था कि ऐसा ही होगा। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई समृद्ध हो और शांत भी हो। अब आपको तय करना है कि आपको शांति चाहिए या समृद्धि। राजा तुरंत साधु की बात समझ गया। उसने चिंता करनी तुरंत छोड़ दी।
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