अशोक मिश्र
हां, तो पिछली पोस्ट में बात विष्णुभट्ट गोड्से की प्रसिद्ध पुस्तक माझा प्रवास के लिखने और मराठी ब्राह्मण के उत्तर भारत की यात्रा करने के बारे में थे। कर्ज में डूबे गोड्से और उनके काका ने ग्वालियर रियासत में कुछ दान-दक्षिणा पाने की अभिलाषा में हिंदुस्तान की यात्रा की और सन अट्ठारह सौ सत्तावन के सैनिक विद्रोह के साक्षी बने। सैनिक विद्रोह दो वर्ष तक चलता रहा, कहीं तेज तो कहीं मंथर। अंग्रेजों ने सैनिक विद्रोह को दो साल में पूरी तरह कुचल दिया। सैनिक विद्रोह की विफलता के कई महत्वपूर्ण कारण थे। 1857 के सैनिक विद्रोह की असफलता का सबसे प्रमुख कारण भारतीय विद्रोही सैनिकों की लेटलतीफी या अति उत्साह था। वे सैनिक अनुशासन के खुद ही सबसे बड़े दुश्मन थे।
मंगल पांडेय का उदाहरण हमारे सामने है जिसने अति उत्साह या जुनून में एक साथ एक समय पर सैनिक विद्रोह की योजना को मटियामेट कर दिया था। मंगल पांडेय की बहादुरी निस्संदेह अतुलनीय थी, लेकिन उसके उतावलेपन ने एक अच्छी खासी योजना को बरबाद कर दिया और अंग्रेजों को न केवल योजना का पता चल गया, बल्कि उन्हें संभलने का मौका भी मिल गया। उस समय योजनाएं बनती थीं कि अंग्रेजों पर इतने बजकर इतने मिनट पर हमला करना है, फलां सैनिक छावनी में इतने अंग्रेज सैनिक हैं, लेकिन जब हमला करने का मौका आता था, तो पता चलता था कि हमले का नियत समय तो बीत चुका है, नवाब साहब या महाराज की फौज अभी तैयार हो रही है।
सैनिक विद्रोह के विफल होने का एक कारण और भी था। और वह यह कि इस विद्रोह में राजे-रजवाड़ों के साथ आम जनता नहीं थी। नवाब साहब या महाराज की नौकरी करने के कारण सैनिक तो लड़ रहे थे, लेकिन उनमें वह जोश और जुनून नहीं था, जो अंग्रेजी फौजों में था। यह सही है कि झांसी की रानी, तात्या टोपे, नवाब वाजिद अली शाह, बेगम हजरत महल, कुंवर सिंह, बहादुर शाह जफर जैसे तमाम ज्ञात अज्ञात लोगों की वीरता और राज्य को अंग्रेजों के चंगुल से बचा लेने की जिजीविषा कम नहीं थी।
इनकी बहादुरी पर किसी को भी रंचमात्र शक नहीं है। वे जब तक लड़े, बड़ी बहादुरी से लड़े। लेकिन ये अपने राज्य या रियासत को बचाने के लिए लड़े। कुछ लोगों को अगर छोड़ दिया जाए, तो सबने सामूहिक रूप से लड़ना पसंद नहीं किया। अगर ये लोग सामूहिक रूप से लड़ते, तो मुट्ठी भर अंग्रेजों को भागकर लंदन पहुंचना पड़ता। लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ। ये व्यक्तिगत रूप से लड़ते रहे और अंग्रेज एक-एक कर इनसे निपटते रहे और दो साल के भीतर पूरे विद्रोह को बंगाल से उत्तर प्रदेश तक, गुजरात से लेकर केरल तक कुचल डाला। कहने का मतलब यह है कि पूरे देश में जहां जहां भी देशी राजे-रजवाड़ों ने विद्रोह किया, कुचल डाले गए। कुछ लड़ते-लड़ते शहीद हुए, तो कुछ अंग्रेजों की जेल में डाल दिए गए। तत्कालीन समय में इन तमाम रियासतों की जनता दोनों से शोषित-पीड़ित थी। अंग्रेज तो उन्हें लूटते ही थे, देशी रियासतों के राजा-महाराजा, नवाब भी उनका कम शोषण नहीं करते थे। उनके हर तीन-चार कोस पर तैनात किए गए जमींदार खून चूस रहे थे। यही वजह है कि 1857 के गदर में जनता एक तरह से निरपेक्ष ही रही। भारतीय इतिहास में सन् 1857 का सैनिक विद्रोह अपनी निहित आंतरिक अंतर्विरोधों के कारण मात्र गदर बनकर रह गया। इसके बाद भारतीय इतिहास में सन 1902 तक बंगाल में अनुशीलन समिति के गठन तक दो महत्वपूर्ण घटनाओं को छोड़कर सन्नाटा दिखता है।
पहली महत्वपूर्ण घटना बासुदेव बलवंत फड़के की शहादत और दूसरी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन में इटावा के अंग्रेज कलक्टर एलन आक्टेवियन ह्यूम (ए ओ ह्यूम) ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बासुदेव बलवंत फड़के का जन्म 4 नवंबर 1845 में महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के शिरढोणे गांव में हुआ था। पंद्रह साल तक पुणे के मिलेट्री एकाउंट डिपार्टमेंट में नौकरी की। वर्ष 1871 में एक दिन उन्हें एक तार मिला कि उनकी मां मृत्यु शैय्या पर है और वह अपने बेटे को देखना चाहती है। फड़के ने अपने अंग्रेज अधिकारी से छुट्टी मांगी, लेकिन अधिकारी ने छुट्टी देने से इनकार कर दिया। अगले दिन फड़के बिना बताए अपनी मां से मिलने चल दिए। अपने गांव पहुंचे, तो पता चला कि उनकी मां नहीं रहीं।
इसके बाद उन्होंने अंग्रेजों की नौकरी छोड़ दी। ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी के दौरान ही वह महादेव गोविंद रानाडे के संपर्क में आ चुके थे। नौकरी छोड़ने के बाद अंग्रेजों के खिलाफ जगह-जगह मोर्चा खोलने वाले क्रांतिकारियों से उन्होंने संपर्क किया और अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की आग को प्रज्ज्वलित करने का प्रयास करने लगे। पहले तो उन्होंने देसी राजे-रजवाड़ों से मदद मांगी, लेकिन सन 1857 में बुरी तरह पराजित हो चुके राजाओं, महाराजाओं ने कोई मदद नहीं की। कुछ अंग्रेज भक्त रियासतों ने तो उन्हें भरमाने का प्रयास भी किया। इसके बाद उन्होंने वर्ष 1879 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की घोषणा कर दी और महाराष्ट्र के नवयुवकों को स्वाधीनता के लिए प्रेरित करने लगे।
कुछ दिनों तक तो उन्होंने पुणे को अपने अधिकार में भी रखा। उन्होंने महाराष्ट्र की कोल,भील और धांगड़ जातियों के नवयुवकों को संगठित कर रामोशी नाम का संगठन तैयार किया। धनी अंग्रेज साहूकारों और अंग्रेज भक्त साहूकारों को लूटकर उन्होंने संगठन के लिए धन की व्यवस्था की। 20 जुलाई 1679 को बीमार बासुदेव बलवंत फड़के बीजापुर के एक मंदिर में आराम कर रहे थे कि किसी ने अंग्रेजों से मुखबिरी कर दी और वे गिरफ्तार कर लिए गए। उनको फांसी की सजा दी गई। बाद में जब प्रसिद्ध वकील महादेव आप्टे ने इनकी पैरवी की, तो उनकी फांसी की सजा कालेपानी में तब्दील करके अदन की जेल में भेज दिया गया। अदन की जेल में यह क्रांतिकारी 17 फरवरी 1883 को शहीद हो गया।
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