Saturday, August 9, 2025

भारत की आम जनता में ब्रिटिश राज के खिलाफ पनपने लगा असंतोष

 बस यों ही बैठे-ठाले-16------रचनाकाल 20 जुलाई 2020

अशोक मिश्र
कल बात खत्म हुई थी क्रांतिकारी बासुदेव बलवंत फड़के की शहादत से। सैनिक विद्रोह के बाद दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं जिन्होंने भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास को बहुत प्रभावित किया। एक तो बासुदेव बलवंत फड़के की अदन जेल में शहादत और दूसरी 28 दिसंबर 1885 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना। इन दोनों घटनाओं का भारत की स्वाधीनता संग्राम के इतिहास को प्रभावित किया। बासुदेव बलवंत फड़के की शहादत के बाद भारत के क्रांतिकारियों ने यह सीखा कि अंग्रेजों से खुलेआम और व्यक्तिगत विद्रोह करने की बजाय एक संगठन बनाकर ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने का प्रयास करना ज्यादा श्रेयस्कर है।
यही वजह है कि 17 फरवरी 1883 में बासुदेव बलवंत फड़के की अदन की जेल में शहादत के बाद व्यक्तिगत विद्रोह की घटनाएं बहुत कम भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में देखने को मिलेंगी। वैसे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ छिटपुट विद्रोह तो पूरे भारत में होते रहे, लेकिन वे इतने प्रभावशाली नहीं साबित हुए। अब बात करते हैं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन और उद्देश्य के बारे में।
कांग्रेस का गठन इटावा जिले के कलक्टर एलन आक्टेवियन ह्यूम यानी ओ ए ह्यूम ने किया था। यह सभी जानते हैं। लेकिन क्यों किया गया था, इस पर शायद ही किसी इतिहासकार ने प्रकाश डाला हो। मुझे याद है, प्रख्यात क्रांतिकारी और आरएसपीआई (एमएल) के महामंत्री का. केशव प्रसाद शर्मा से जब भी लखनऊ में मुलाकात होती थी, वे बातचीत के दौरान अक्सर बताया करते थे कि सैनिक विद्रोह और बासुदेव बलवंत फड़के की शहादत के बाद इटावा जिले का कलक्टर एओ ह्यूम भागकर लंदन पहुंचा और उसने ब्रिटिश संसद को बताया कि अब भारत में बहुत दिनों तक ब्रिटिश हुकूमत कायम रहने वाली नहीं है। ब्रिटिश सांसदों ने पूछा, वह क्यों भला। तो उसने बताया कि अट्ठारह सौ सत्तावन में तो राजे-रजवाड़ों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद किया था, लेकिन अब भारत की आम जनता में ब्रिटिश राज के खिलाफ असंतोष पनपने लगा है। यदि आम जनता बगावत पर उतारी हो गई, तो फिर भारत में ब्रिटिश राज कितने दिन का मेहमान रह जाएगा।
यह सुनकर ब्रिटेन के सांसदों, उद्योगपतियों, व्यापारियों और शासकों को बड़ी चिंता हुई क्योंकि भारत उनके लिए तब सोने का अंडा देने वाली मुर्गी थी। वह किसी भी हालत में भारत को अपने हाथ से निकलने नहीं देता चाहते थे। सबने तब एलन आक्टेवियन ह्यूम से ही पूछा-भारत में ब्रिटिश राज को बनाए रखने के लिए क्या किया जाए। तब एओ ह्यूम ने कहा कि भारत में एक ऐसे दल का गठन किया जाए जिसके सदस्य जन्म और पहनावे से भारतीय हों, लेकिन उनकी सोच अंग्रेजों जैसी हो। आप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन के दौरान की भौतिक वस्तु परिस्थितियों पर नजर डालें, तो साफ पता चलता है कि 28 दिसंबर 1885 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वालों कौन-कौन थे। दादा भाई नौरोजी, सर सुरेंद्र नाथ बनर्जी, सर फीरोज शाह मेहता, महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले, व्योमेश चंद्र बनर्जी, बाल गंगाधर तिलक आदि ने कांग्रेस के गठन में सबसे ज्यादा रुचि ली।
अब इनकी पारिवारिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि तलाशिये। इनमें से ज्यादातर लोग पढ़ाई-लिखाई या अपनी बैरिस्टरी चमकाने के लिए लंदन आ जा चुके थे। ये अंग्रेजी सभ्यता और संस्कृति से प्रभावित भी थे। कांग्रेस के पहले सभापति (कांग्रेस अध्यक्ष को बहुत बाद में राष्ट्रपति भी कहा जाता था) बनाए गए व्योमेश चंद्र बनर्जी तो बंगाली क्रिश्चियन थे। खुद महासचिव का पदभार एओ ह्यूम ने संभाला। 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति में 28 दिसम्बर 1885 को बाम्बे के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में जिस कांग्रेस का गठन किया गया, उसका उद्देश्य स्वतंत्रता हासिल करना नहीं था।
उसका लक्ष्य अंग्रेजों द्वारा भारतीय जनता का किए जा रहे शोषण, दोहन, उत्पीड़न में थोड़ी रियायत की मांग करना भर था। जिन 72 सदस्यों की उपस्थिति में कांग्रेस का गठन हुआ था, उनमें से अधिकतर लोग अंग्रेजी दां थे। लंदन से बैरिस्टरी या दूसरी पढ़ाई करके आए थे। अमीर घरों के चश्मेचिराग थे। इनकी मानसिकता भारतीय के प्रति कैसी थी, इसका एक उदाहरण फिरोजशाह मेहता (जिन्हें अंग्रेजों ने सर की उपाधि से विभूषित किया था) और मोहनदास करमचंद गांधी की मुंबई से हुई एक मुलाकात से मिल जाता है। गांधी बेनकाब पुस्तक में हंसराज रहबर लिखते हैं कि बैरिस्टरी की पढ़ाई के दौरान लंदन गए मोहनदास करमचंद गांधी से अंग्रेजों ने जब दुर्व्यवहार किया, तो उन्होंने भारत आने पर बाम्बे (अब मुंबई) में सर फिरोजशाह मेहता से मुलाकात की और अंग्रेजों के दुर्व्यवहार का जिक्र किया।
तब फिरोज शाह मेहता ने गांधी को सीख देते हुए कहा, देखो! गुजराती अपमान और रुपया-पैसा गल्ले में दबाकर रखता है। तुम भी अपने अपमान को गल्ले में दबाकर रखना जितनी जल्दी सीख जाओ, तुम्हारे लिए उतना ही अच्छा होगा। तो यह थी कांग्रेस के गठन का उद्देश्य और तात्कालिक लक्ष्य। वे अंग्रेजों से भारतीय समाज में सुधार चाहते थे। अंग्रेज अगर उनकी कोई बात मान लेते थे, तो वे आभार जताने में भी संकोच नहीं करते थे।
स्वाधीनता तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का लक्ष्य कभी रहा ही नहीं। वह तो भारतीय जनमानस और क्रांतिकारियों की बढ़ती लोकप्रियता को देखकर और बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और विपिन चंद्र पाल के दबाव में 31 दिसम्बर 1929 में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में रावी नदी के तट पर हुए कांग्रेस के अधिवेशन में आधी रात को 'पूर्ण स्वराज्य' का प्रस्ताव पास किया गया था। इस पूर्ण स्वराज में स्वाधीनता की बात कहां थी, यह तो कांग्रेस ही बता सकती है।

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