बस यों ही बैठे ठाले------13-------17 जुलाई 2020 अशोक मिश्र
हां, तो बात माझा प्रवास पुस्तक के लेखक विष्णुभट्ट गोडसे वरसाईकर के बारे में हो रही थी। कल मैंने बताया था कि उन्होंने ब्रह्मयज्ञ यानी कि पुरोहिताई में निपुणता हासिल कर ली थी। वे तीन भाई थी। हरिपंत गोड्से, धोंड़ भट्ट गोड्से उनके छोटे भाई थे। वे अपनी पुस्तक माझा प्रवास (आंखों देखा गदर-अनुवाद अमृत लाल नागर) में लिखते हैं कि गरीबी उनके आगे मटके फोड़ते चलती थी। हरिपंत की स्नान, सन्ध्या, वैश्वदेव, श्रावणी, रुद्र, पवमान, सौर इत्यादि ब्रह्मकर्म सिखाकर लिखने का अभ्यास कराया गया। उसके अक्षर बड़े सुंदर होते थे और वह जमा खर्च, हिसाबी कामों में भी निपुण था। ठाणे में दो-तीन बार परीक्षा देने पर वह सफल नहीं हुआ, तो उसने पेण में एक साहूकार की नौकरी कर ली। साहूकार उसे बहुत मानता था। सबसे छोटा घोंड़ भट्ट बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि का था। उसने अपने गुरु से संहिता के ग्यारह अध्याय पढ़कर और कंठाग्र करके सबको दिखा दिया।
अपने बुद्धि बल से वह संहिंता के पद, क्रम आदि सब कहकर ज्योतिष में पारंगत हो गया। वह छोटी उम्र में ही कविता करने लगा। उसकी कीर्ति चारों ओर फैल गई। उन दिनों सस्ती की जमाना था। तो बिना कोई कर्ज लिए गृहस्थी चलती जा रही थी। धीरे-धीरे जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ने लगी, तीनों भाइयों के ब्याह के लिए रिश्ते आने लगे थे। उन दिनों उत्तर भारत से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम भारत में लड़की के पिता कुल-गोत्र पर शायद ज्यादा ध्यान देते थे। आर्थिक दशा पर उनका उतना दबाव नहीं होता था। वे अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि हमारा घराना सभ्य होने के कारण कुलीन घरानों से भी रिश्ते आने लगे थे।
हमारे पिता इसके लिए तैयार नहीं होते थे। जब हम लोग थोड़े पैसे कमाने लगे, तो हमारे ब्याह भी हो गए। हम भाइयों में गरीबी होने के बावजूद काफी प्रेम था। हम भाइयों की पत्नियां भी आपस में बड़े प्रेम से रहती थीं। कहते हैं कि भाई-भाई में झगड़ा और घर के बंटवारे में स्त्रियां का बहुत बड़ा हाथ होता है, लेकिन यहां ऐसा कुछ भी नहीं था। हम भाइयों के विवाह के कारण पिता जी को कुछ ऋण लेना पड़ा। फिर हमारी बहन कृष्णा बाई का विवाह हुआ, तो यह कर्ज तीनगुना-चार गुना हो गया। मेहमानों ने घर आकर दिवाला निकाल दिया। हमारी आमदनी पहले से ही कम थी, उस पर कर्ज और ब्याज की अदायगी ने और कमर तोड़ दी।
विष्णुभट्ट गोड्से लिखते हैं कि शके 1778 माघ शिवरात्रि के करीब (यह किस महीने और किस सन की बात है, यह मुझे नहीं मालूम, आप में से कोई यह बता सके, तो बहुत आभारी रहूंगा-अशोक) मैं कुछ यजमान कृत्य के लिए पुणे गया। वहां सुना कि बायजा बाई साहब (शिंदे) मुथरा में सर्वतोमुख यज्ञ कराने वाली हैं। इस यज्ञ में एकमुश्त सात-आठ लाख रुपये धर्मादाय में खर्च होंगे। इस आशय के पत्र नासिक, पुणे आदि की विद्वान मंडली के पास आए थे।
कर्ज ने गोड्से परिवार को पहले से ही दबा रखा था। सो, विष्णुभट्ट ने सोचा कि यदि किसी तरह बायजा बाई साहब (शिंदे) के यहां जाने को मिल जाए, तो दान-दक्षिणा में इतना द्रव्य जरूर मिल जाएगा कि उससे कर्ज चुकाने के बाद जिंदगी आराम से कट जाएगी। विष्णुभट्ट अपने को विद्वान तो नहीं मानते थे, लेकिन उनका मानना था कि धर्मशास्त्र और याज्ञिकी में उन्होंने अपने जमाने के उत्तम गुरुओं से शिक्षा पाई है। वरसई गांव के ही विनायक शास्त्री जोशी से उन्होंने वेद शास्त्र और ज्योतिष की शिक्षा पाई थी। जोशी जी की विद्वता की कीर्ति मराठा राज्य में चारों ओर थी। वे अति विद्वान भी थे। विष्णुभट्ट ने उन्हें याज्ञिकी में सूर्य के समान बताया है।
बायजा बाई साहब (यह ग्वालियर के किसी राजा की महारानी थीं और उनका मायका शायद महाराष्ट्र में था, इसलिए मराठा राज्य से आने वालों के प्रति उनका प्रेम स्वाभाविक था। हमारे अवधी भाषी क्षेत्र में कहावत है कि औरतों को मायके का कुत्ता भी बहुत प्यारा होता है। और यह बात काफी हद तक सही भी है। यह कहावत जिन दिनों चलन में आई थी, उन दिनों आवागमन के साधन बहुत कम थे।
आज की तरह ह्वाट्सएप और मोबाइल फोन तो थे नहीं। इसलिए मायके की तरफ का कोई भी आदमी आ जाता था, तो वह उससे पूरे गांव का हालचाल पूछती थीं। उन्हें इतनी खुशी होती थी कि क्या बताऊं। गांव या जंवार कोई भी किसी तरफ जाता था, तो वह गांव जवार की बहू-बेटियों के मायके या ससुराल जरूर जाता था। इसका कारण दोनों तरफ का हालचाल, खोज-खबर लेना-देना होता था। यह बात मैंने अपने बचपन में महसूस की है, जब अपनी बुआओं के यहां साल-दो साल में एकाध बार जाता था, तो वे नथई पुरवा ही नहीं, सर्रैयां, घूघुलपुर आदि के लोगों का भी हाल-चाल पूछती थीं। हालांकि मैं अपने ही गांव के बारे में ज्यादा नहीं जानता था क्योंकि उन दिनों लखनऊ में रहता था और गर्मी की छुट्टियों में गांव जाता था।)
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