अशोक मिश्र
हर व्यक्ति की इच्छा होती है कि उसने अपने जीवन में जो कुछ भी कमाया है, हासिल किया है, उसकी अगली पीढ़ी उसको न केवल उसे संरक्षित रखे, बल्कि उसे आगे भी बढ़ाए। लेकिन कुछ लोग यह मानते हैं कि यदि उनका उत्तराधिकारी योग्य होगा, तो उसे आगे ले ही जाएगा। यदि योग्य नहीं होगा, तो उसके लिए कितना भी रख दिया जाए, वह उसे नष्ट कर ही देगा।
प्राचीनकाल में एक आश्रम के गुरु जी भी इसी चिंता में लीन थे। उनकी उम्र बढ़ती जा रही थी। वह समझ नहीं पा रहे थे कि वह किसको इस आश्रम की जिम्मेदारी सौंपे। वैसे उनके दो शिष्य ऐसे थे जो योग्य थे और गुरुजी को प्रिय भी थे। इसी ऊहापोह में गुरुजी लगे हुए थे। उनका मन कभी एक को गुरुकुल सौंपने का होता, तो कभी दूसरे को। एक दिन उन्होंने सोचा कि इन दोनों शिष्यों की परीक्षा लेनी चाहिए जो योग्य होगा उसको आश्रम का कुलगुरु बनाकर मैं संन्यास ले लूंगा।
उन्होंने दोनों शिष्यों को बुलाया और एक मुट्ठी गेहूं के दाने देते हुए कहा कि मैं कुछ दिनों के लिए तीर्थाटन पर जा रहा हूं। मैं जब लौटकर आऊंगा, तब मुझे यह दाने वापस कर देना। इतना कहकर गुरुजी अपनी राह चले गए। एक शिष्य को भगवान की पूजा-आराधना करना बहुत पसंद था। उसने गेहूं के दानों को एक साफ कपड़े में बांधा और उसे भगवान की मूर्ति के आगे रखकर उसकी पूजा करने लगा। दूसरा शिष्य सोचने लगा कि क्या किया जाए जो दाने सुरक्षित रहें।
उसने एक दिन खेत में उन दानों को बो दिया। समय पर फसल तैयार हुई, तो उस अनाज को सुरक्षित रख लिया। अगले सीजन पर उसे फिर बोया और फसल पकी भी नहीं थी कि गुरुजी लौट आए। उन्होंने शिष्यों से गेहूं मांगा, तो एक शिष्य ने पोटली लाकर रख दी। गेहूं के दाने सड़ गए थे। दूसरे शिष्य ने फसल को दिखाते हुए कहा कि मैं आपका अनाज अभी नहीं दे सकता। गुरुजी फसल को देखकर प्रसन्न हुए और उसे ही गुरुकुल सौंप दिया।
No comments:
Post a Comment