बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र
आजाद हिंद फौज का गठन सन 1942 को जापान की राजधानी टोक्यो में हुई थी। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था। जापान अधिकृत सिंगापुर में आजाद हिंद फौज के गठन का विचार सबसे पहले मोहन सिंह के मन में आया था। बस फिर क्या था? कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस और निरंजन सिंह गिल ने आजाद हिंद फौज का गठन किया।
फौज का गठन होने के बाद सबसे बड़ा संकट इतनी बड़ी फौज के नेतृत्व करने की थी। नतीजा यह हुआ कि आजाद हिंद फौज कुछ ही समय बाद निष्क्रिय हो गई। 4 जुलाई 1943 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस को इसका नेतृत्व रासबिहारी बोस ने सौंप दिया और उसके अगले दिन नेताजी ने दिल्ली चलो का नारा दिया।
उन दिनों जापान और अन्य देशों से आजाद हिंद फौज को भारी मात्रा में सहायता मिल रही थी। सिंगापुर में आजाद हिंद फौज के लिए मदद देने वालों की एक बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी हुई थी। एक बुजुर्ग महिला नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पास पहुंची और उसने कहा कि यह हार ही मेरी सबसे बड़ी संपत्ति है। इसे आप ग्रहण करें। हार का मूल्य उन दिनों 25-30 रुपये ही था।
बुजुर्ग महिला का त्याग देखकर नेताजी भावविभोर हो गए। उन्होंने उस हार की नीलामी करवाई। पहली बोली एक हजार रुपये रखी गई। देखते ही देखते उस हार की बोली आठ लाख रुपये तक पहुंच गई। तभी एक व्यक्ति आगे आया और उसने कहा कि मैं अपने आप सहित अपनी पूरी संपत्ति इस हार के लिए देता हूं। इसके बाद वह आदमी आजाद हिंद फौज में शामिल हो गया। उसकी संपत्ति की कीमत आठ लाख रुपये से अधिक थी।
इस तरह विदेश में रह रहे भारतीयों और विदेशी नागरिकों की मदद से आजाद हिंद फौज आगे बढ़ती हुई बर्मा के साथ कोहिमा और इंफाल तक पहुंच गई थी। इससे अंग्रेजी शासन की चूलें हिल गई थीं।
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