Thursday, March 20, 2025

तुम्हारी सिद्धि की औकात दो पैसे भी नहीं

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

सभी धर्मों की एकता पर बल देने वाले रामकृष्ण परमहंस भारत के महान संत, आध्यात्मिक गुरु और दार्शनिक थे। वह मानवीय मूल्यों के प्रबल समर्थक थे। उनका जन्म 18 फरवरी 1836 को बंगाल के कामारपुर गांव में हुआ था। बचपन में इनका नाम गदाधर था। इनके जन्म के बारे में कई प्रकार कहानियां कही जाती हैं। 

आध्यात्मिक संत होने के बाद भी इन्हें तनिक भी अहंकार नहीं था। परमहंस के सबसे प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानंद थे। एक बार विवेकानंद ने हिमालय पर जाकर तपस्या करने की अनुमति मांगी, तो उन्होंने कहा कि देश में इतने सारे लोग भूख से पीड़ित हैं, उनकी सहायता करने की जगह तपस्या करके कौन सी सिद्धि पाना चाहते हो। परमहंस के बारे में एक बड़ी रोचक कथा कही जाती है। 

जब स्वामी रामकृष्ण परमहंस दक्षिणेश्वर मंदिर के पुजारी थे, तो लोग उनकी लोकप्रियता देखकर ईर्ष्या करने लगे। एक दिन एक संन्यासी उनके पास आया और बोला कि यदि तुम सचमुच परमहंस हो तो चमत्कार दिखाओ। परमहंस ने बड़ी विनम्रता से कहा कि मैं तो एक साधारण आदमी हूं। चमत्कार कैसे दिखा सकता हूं। उस संन्यासी ने गर्व से कहा कि मैंने 18 साल तक हिमालय पर कठोर तपस्या की है। इस तपस्या के परिणाम स्वरूप मैं गंगा नदी के पानी पर चल सकता हूं। तुमने तो कोई भी सिद्धि हासिल नहीं की। 

तब रामकृष्ण ने विनीत भाव से कहा कि मुझे तो जब भी नदी के उस पार जाना चाहता हूं, नाविक को आवाज देता हूं। वह दो पैसे में मुझे उस पार उतार देता है। तुम्हारी सिद्धि की औकात तो दो पैसे भी नहीं है। तुमने 18 साल इसे हासिल करने में लगा दिए। यदि इन वर्षों का उपयोग लोगों की भलाई में करते, तो जीवन सफल हो गया होता। यह सुनकर संन्यासी चला गया।



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