Monday, March 3, 2025

सुंदरता और यौवन नहीं होते चिरस्थायी


बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र

जीवन का कोई भरोसा नहीं है। कब क्या हो जाए, कोई नहीं कह सकता है। आज जो बच्चा है, कल वह जवान होगा। आज जो जवान है, कल वह अधेड़ और बूढ़ा होगा। अपनी युवावस्था पर इतराने वालों को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि सुंदरता और यौवन चिरस्थायी नहीं होते हैं। सुंदर से सुंदर व्यक्ति जब बुढ़ापे की दहलीज पर पहुंचता है, तब उसका चेहरा और शरीर सुंदर नहीं रह जाता है। 

ऐसी स्थिति में अपनी सुंदरता और यौवन पर इतराने वालों को यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि प्रकृति में कुछ भी स्थायी नहीं है। 

शहर के बाजार में एक भिखारी बैठकर भिक्षा मांगता था। वह इतना कमजोर हो चुका था कि उसके शरीर की एक-एक हड्डी साफ दिखाई देती थी। उसे देखकर उधर से गुजरने वाले एक युवक के मन में घृणा और दया के भाव एक साथ उभरते थे। 

एक दिन उस युवक ने उस भिखारी से कह ही दिया कि जब तुम इतने कमजोर हो, चल-फिर नहीं सकते हो, तो जीने की लालसा क्यों पालते हो? तुम और जीकर क्या करोगे? तुम्हें भीख भी मांगनी पड़ रही है। तुम भगवान से यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हें मृत्यु देकर इन कष्टों से मुक्ति दिला दें। 

उसकी बात सुनकर भिखारी ने कहा कि बेटा! तुम्हारी बात सही है। मुझे इस उम्र में यकीनन मर जाना चाहिए। मैं भी ईश्वर से प्रति दिन यही मांगता हूं कि मुझे इस शरीर से मुक्ति दे दें, लेकिन शायद भगवान मुझे और जिंदा रखना चाहते हैं ताकि जो लोग मेरे इस शरीर को देखकर घृणा करते हैं, वे इस बात समझ सकें कि सुख और यौवन स्थायी नहीं होते हैं। बेटा! युवावस्था में मैं भी तुम्हारी तरह सुंदर और हष्ट-पुष्ट था। 

यह सुनकर युवक उस भिखारी की बात समझ गया। वह शर्मिंदा होकर चला गया।

मैंने भी आपकी मातृभाषा का आदर किया

अशोक मिश्र

नरेंद्र दत्त को भले ही कम लोग जानते हों, लेकिन स्वामी विवेकानंद को लगभग भारत में सभी लोग जानते होंगे। विस्तार से भले ही स्वामी विवेकानंद के बारे में कुछ न बता पाएं, लेकिन इतना तो जरूरत जानते हैं कि वह हमारे देश के संत थे और उन्होंने समाज सुधार की दिशा में बहुत काम किया था। 

यही
स्वामी विवेकानंद की लोकप्रियता का उदाहरण है। नरेंद्र दत्त यानी स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 में कोलकाता में हुआ था। स्वामी जी के जन्म के एक साल बाद इनके पिता विश्वनाथ दत्त का निधन हो गया था। इसके चलते परिवार को आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ा। इसके बावजूद स्वामी विवेकानंद ने देश और समाज की उन्नति के लिए प्रयास करना नहीं छोड़ा। 

जब वह 1893 में शिकागो में हो रही धर्म संसद में भाग लेने के लिए अमेरिका गए तो वहां लोगों ने इनका बहुत स्वागत किया। कुछ लोगों ने इनसे अंग्रेजी में सवाल पूछा, तो स्वामी विवेकानंद ने हिंदी में जवाब दिया। अमेरिका में ज्यादातर लोग अंग्रेजी में बातचीत करते हैं। उनकी मातृभाषा भी अंग्रेजी है। 

जब स्वामी विवेकानंद ने अंग्रेजी में पूछे गए सवालों का जवाब हिंदी में दिया, तो लोगों ने समझा कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती है। ऐसी स्थिति में एक व्यक्ति ने उनसे हिंदी में पूछा कि आप कैसे हैं? 

स्वामी जी ने कहा कि आई एम फाइन एंड थैंक्यू। 

यह सुनकर सब चकित रह गए। लोगों ने कहा कि आपने अंग्रेजी में पूछे गए सवालों का हिंदी में जवाब दिया। हिंदी में सवाल किया, तो अंग्रेजी में जवाब दिया। ऐसा क्यों? 

स्वामी जी ने कहा कि आपने अपनी मातृभाषा में बात की, तो मैंने भी अपनी मातृभाषा में जवाब दिया। आपने हमारी भाषा का आदर करते हुए हिंदी में पूछा, तो मैंने भी आपकी भाषा का आदर करते हुए अंग्रेजी में जवाब दिया। स्वामी जी का यह जवाब सुनकर लोग बहुत प्रसन्न हए।

मनुष्य की इच्छा शक्ति से बढ़कर कोई नहीं

 बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

बुद्ध को गौतम इसलिए कहा जाता है क्योंकि उनका पालन पोषण उनकी मौसी महा प्रजापति गौतमी ने किया था। बुद्ध यानी सिद्धार्थ के जन्म के साथ दिन बाद उनकी मां महामाया की मृत्यु हो गई थी। महाप्रजापति गौतमी वह पहली महिला थीं जिसने बौद्ध धर्म में भिक्षुणी बनने का सौभाग्य प्राप्त किया था। 

महात्मा बुद्ध ने 29 वर्ष की आयु में नवजात पुत्र राहुल और पत्नी यशोधरा को छोड़ दिया था और सत्य की खोज में घर से निकल पड़े थे। तथागत दूसरों को तमाम विपदाओं में घिरा देखकर उनकी समस्याओं को दूर करना चाहते थे। एक बार की बात है। महात्मा बुद्ध श्रावस्ती में प्रवचन दे रहे थे। 

उनके एक शिष्य ने जिज्ञासावश पूछ लिया कि भंते! कोई इस निर्जीव पत्थर पर शासन कर सकता है क्या? 

यह सुनकर बुद्ध मुुस्कुराए और बोले, क्यों? लोहे की हथौड़ी-छेनी से पत्थर को टूटते नहीं देखा है क्या? 

तब शिष्य ने कहा कि तब तो लोहा इस दुनिया में सबसे शक्तिशाली है। 

बुद्ध बोले, लोहे को तो आग जलाकर द्रव्य बना देती है। लोहा सबसे शक्तिशाली कैसे हुआ?

उस शिष्य ने फिर कहा-फिर तो आग से बढ़कर कोई नहीं हो सकता है। 

अब बुद्ध मुस्कुराए और बोले, आग पर पानी पड़ते ही आग तो तुरंत बुझ जाती है। 

शिष्य अब भी अपनी बात आगे बढ़ाने पर तुला हुआ था, तब पानी निश्चित रूप से सर्वशक्तिमान है।

बुद्ध फिर बोले, पानी को तो हवा सोख लेती है। उसे अपने साथ बहा ले जाती है। 

शिष्य बोला, फिर तो हवा ही सबसे शक्तिशाली है। 

बुद्ध ने कहा कि इनसान अपनी इच्छा शक्ति से उद्यम करके हवा की दिशा बदल देता है। इस संसार में मनुष्य की इच्छा शक्ति से बढ़कर कोई दूसरी शक्ति नहीं है। मनुष्य अपनी इच्छा शक्ति के बल पर कुछ भी कर सकता है। यह सुनकर उस शिष्य की सारी जिज्ञासाएं शांत हो गई और वह दूसरे काम में लग गया।



Saturday, March 1, 2025

गुलामी से मुक्त हुए हकीम लुकमान


बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र

हकीम लुकमान का जन्म अरब में हुआ था। वह देश कौन सा था, इसके बारे में इतिहासकारों में मतभेद है। नूबिया, सूडान या इथोपिया में से किसी एक देश में पैदा हुए थे हकीम लुकमान, ऐसा भी मानने वाले इतिहासकार हैं। बहरहाल, यूनानी चिकित्सा में लुकमान का काफी नाम था। लुकमान का जिक्र कुरान में भी किया गया है। 

एक कथा के अनुसार, बचपन में वह किसी उमराव के वह गुलाम थे। उन दिनों अरब में गुलाम रखने की प्रथा थी। बाद में उमराव ने लुकमान को गुलामी से मुक्त कर दिया था। इसके बारे में भी एक कहानी कही जाती है। कहते हैं कि एक दिन उमराव ककड़ी खा रहा था जो काफी कड़वी थी। उसने आधी ककड़ी लुकमान को खाने को दी, तो उन्होंने खा ली। उमराव ने पूछा कि तुमने बताया नहीं कि ककड़ी कड़वी थी। 

लुकमान ने कहा कि जब आप रोज स्वादिष्ट भोजन खाने को देते हैं, तो क्या एक दिन में कड़वी ककड़ी नहीं खा सकता? यह सुनकर उमराव प्रसन्न हुआ और उसने लुकमान को गुलामी से मुक्त कर दिया। कहते हैं कि इसके बाद उन्होंने चिकित्सा विज्ञान की खूब मन लगाकर पढ़ाई की और उन्होंने सभी तरह के रोगों का उपचार खोज लिया। 

यह भी कहा जाता है कि वह भारतीय आयुर्वेद के जनक चरक के समकालीन थे। लुकमान ने अपने एक दूत को चरक के पास संदेश भेजते हुए कहा कि रास्ते में तुम इमली के पेड़ के नीचे ही रात्रि विश्राम करना। जब वह दूत चरक के पास पहुंचा, तो उसके शरीर पर फफोले पड़े हुए थे।

 चरक ने संदेश का कागज देखा, उस पर कुछ नहीं लिखा हुआ था। चरक ने भी एक कागज देते हुए कहा कि तुम रात में नीम के नीचे रुकना। जब दूत लुकमान के पास पहुंचा, तो उसके फफोले ठीक हो गए थे। चरक ने जो कागज भेजा था, वह भी सादा था।



संत की जान के बदले पूरा ईरान ले लो

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

बारहवीं शताब्दी में फारस के नेशांपुर में प्रसिद्ध सूफी संत फरीदउद्दीन अत्तार का जन्म हुआ था। वैसे उनका नाम अबू हामिद बिन अबू बक्र इब्राहीम था, लेकिन उनको ख्याति फरीदउद्दीन अत्तार के नाम से मिली। अत्तार सूफीवाद के तीन प्रसिद्ध स्तंभों में से एक माने जाते हैं। अत्तार का सबसे  प्रसिद्ध ग्रंथ फारसी भाषा का मसनवी अत्तार माना जाता है। यह भी माना जाता है कि अत्तार अपने जमाने के प्रसिद्ध रसायनज्ञ के बेटे थे। 

उन्होंने शुरुआती दौर में वैद्य का काम किया था, लेकिन बाद में यह पेशा छोड़ दिया था। इनके संबंध में एक रोचक घटना बताई जाती है। बात उन दिनों की है, जब तुर्की और ईरान के बीच युद्ध चल रहा था। काफी दिनों से चल रहे युद्ध का कोई फैसला नहीं हो पा रहा था। 

हालांकि ईरान का पलड़ा युद्ध में भारी था। संयोग से तुर्की से गुजर रहे संत फरीदउद्दीन अत्तार को तुर्कियों ने गिरफ्तार कर लिया। तुर्की के बादशाह ने संत को फांसी की सजा सुनाई। यह सुनकर ईरान में हाहाकार मच गया। संत की सजा सुनकर लोग परेशान हो उठे। एक अमीर आदमी ने तुर्की के सामने प्रस्ताव रखा कि संत का जितना वजन है, उसके बराबर हीरा, मोती या जवाहरात ले लो, लेकिन संत को छोड़ दो। बहुत सारे लोग संत के बदले अपनी जान देने को तैयार थे। लेकिन तुर्की का बादशाह इस पर तैयार नहीं हुआ। 

तब ईरान का बादशाह आगे आया और उसने तुर्की के बादशाह से कहा कि वह ईरान ले ले, लेकिन संत को छोड़ दे। तुर्की के बादशाह को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने कहा कि एक आदमी के लिए आप पूरा राज्य देने को तैयार हैं। ईरानी बादशाह ने कहा कि राज्य तो आज है, कल नहीं रहेगा, लेकिन यदि संत को फांसी हो गई, तो ईरान हमेशा के लिए कलंकित हो जाएगा। यह सुनकर तुर्की के बादशाह ने संत को रिहा कर दिया।