Tuesday, December 23, 2025

स्वेटर बुनती औरतें और उधड़ते जीवन के रहस्य

संजय मग्गू

जिंदगी भी किसी सधे हुए हाथों से बुने हुए स्वेटर जैसी होती है। एक भी फंदा गलत हुआ, पूरे जीवन की सलाइयां उधेड़नी पड़ती हैं। लेकिन आज जिस तरह स्वेटर हाथों से नहीं मशीनों से बुना जाता है, उसी तरह हमारी तेज भागती जिंदगी में हाथों की जगह मशीनों ने ले ली है। आज से तकरीबन दो-ढ़ाई दशक पहले जैसे ही हल्की ठंडक पड़ने लगती थी, लगभग सभी घरों में ऊन के गोले, सलाइयां बाहर निकल आती थी। कहीं कोई पुराना स्वेटर उधेड़कर गोले बना रहा है, तो कोई ऊन का रंग फीका पड़ जाने की वजह से उसी रंग का घोल तैयार कर रहा है, ताकि ऊन को रंगकर नया जैसा बनाया जा सके। 

दादी, नानी, चाची, बुआ, भाभी अपना घर का काम निबटाने के बाद घर के आंगन में, घर के दरवाजे पर या छत पर बैठी स्वेटर बुन रही होती थीं। कहां फंदा घटाना है, कहां फंदा बढ़ाना है, सब कुछ पहले से ही तय है जिंदगी की तरह। छत, आंगन या घर के दरवाजे पर बैठी महिलाएं एक लय में स्वेटर बुनती जाती थीं और फिर खोल बैठती थीं यादों का पिटारा। एक से बढ़कर एक किस्से। रोचक, चटपटे और कभी-कभी गमगीन कर देने वाले किस्से। यदि ननद-भावज हों, तो एक दूसरे से चुटकी भी लेती चलती हैं। हास-परिहास के साथ-साथ अंगुलियां चलती रहती हैं। अंगुलियों को जैसे पता है, उन्हें कितने फंदे के बाद का फंदा घटा देना है। कई बार तो मन के ऐसे-ऐसे राज खुलते थे स्वेटर की बुनाई के दौरान जिसको महिला ने अपने अंतरमन में बहुत गहरे दबाकर रखा था। स्वेटर बुनती महिलाएं कभी खिलखिलाती थीं, तो कभी उदास हो जाती थीं। 

पीड़ा भरी कहानियां या घटनाएं उनकी संवेदना को झकझोर देती थीं, आंखों में अश्रु की बूंदे आ जाती थीं। आत्मीयता की गांठ बांधकर बड़े से बड़ा रहस्य अपने अंदर दफन कर लेती थीं स्वेटर बुनने वाली महिलाएं। मजाल है कि यह राज किसी के सामने खुल जाए। वैसे तो स्वेटरों की डिजाइन सबका अपना-अपना होता था जीवन की तरह। लेकिन बुनने का तरीका सबका एक जैसा। स्वेटर में डाला गया हर एक फंदा प्रेम, आत्मीयता और स्नेह का फंदा होता था। एकदम मजबूत। स्वेटर तैयार होने पर जो खुशी मिलती थी, वह आज बाजार से स्वेटर खरीदकर लाने पर नहीं मिलती है। हाथ से बुने गए स्वेटर में जो अपनापन, प्रेम और समर्पण की गर्माहट होती थी, वह आज की मशीनों से बुने हुए स्वेटर में कहां नसीब हो सकती है। 

यह अपनापन, संबंधों की गर्माहट ट्रांसफर भी होती रहती थी। अगर स्वेटर साल-दो साल बाद छोटा पड़ गया, तो फेंक नहीं दिया जाता था। जिसको आ जाए, उसको दे दिया जाता था। यदि किसी काम का नहीं भी रह गया, तो उसे उधेड़कर किसी बच्चे का कनटोप, मफलर या दस्ताना बुन लिया जाता था। मितव्ययता तो जैसे इन महिलाओं को घुट्टी में पिला दी जाती थी। मशीन से बुना स्वेटर कटने, फटने या छोटा हो जाने के बाद किसी काम का नहीं। फेंकने के सिवा कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है।

No comments:

Post a Comment