अशोक मिश्र
हिंदी भाषा के परिष्कार में भारतेंदु हरिश्चंद्र का योगदान किसी से कम नहीं है। भारतेंदु को आधुनिक हिंदी साहित्य का पितामह कहा जाता है। वैसे इनका जन्म वाराणसी में 9 सितंबर 1850 में हुआ था। इनका परिवार सुंघनी साहू के नाम से विख्यात था।भारतेंदु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने निबंध, कहानी, उपन्यास और कविता में कई प्रसिद्ध रचनाएं देकर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया था।
भारतेंदु ने अपनी रचनाओं से सामंती रूढ़ियों का विरोध करते हुए नवीन भारत के निर्माण की बात कही। पांच साल की आयु में दोहा रचकर अपने पिता से सुकवि होने का आशीर्वाद भी हासिल किया। इनकी रचनाओं में ब्रिटिश हुकूमत के प्रति रोष बहुतायत में देखने को मिलता है। कहते हैं कि इनकी उदारता और लापरवाही के चलते व्यापार चौपट हो गया।
भारतेंदु को किसी कारणवश काशी के ही एक सेठ से नाव खरीदने और दूसरे कामों के लिए तीन हजार रुपये उधार लेने पड़े। घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने से वह समय पर सेठ की रकम लौटा नहीं पाए। उस सेठ ने भारतेंदु पर अपने पैसे की वापसी के लिए मुकदमा कर दिया। जब अदालत में केस गया, तो जज ने उनसे पूछा कि क्या दावे में जो रकम लिखी गई है, वह सही है?
भारतेंदु ने कहा कि सेठ ने अपने दावे में जो कहा है, वह बिल्कुल सही है। जज ने उन्हें अकेले में बुलाकर पूछा कि सचमुच इतनी रकम उधार ली थी? भारतेंदु ने कहा कि सेठ का दावा एकदम सही है। मैंने इनसे यही रकम ली थी। एक मित्र ने कहा कि तुम जाने माने लेखक हो। तुम इनकार कर दो, सेठ तुम्हारा क्या कर लेगा। तब भारतेंदु ने कहा कि जाना-माना होने के नाते में मेरा कर्तव्य है कि मैं सच बोलूं। लेखक की कथनी-करनी में भेद नहीं होना चाहिए। यह देखकर सेठ ने अपना दावा वापस ले लिया।
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