Thursday, September 25, 2025

बस फांसी! इसके सिवा दे भी क्या सकते हो

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

जब भी किसी गुलाम देश में स्वाधीनता संग्राम शुरू होता है, तो आजादी मिलने तक न जाने कितने वीरों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ती है। हमारा देश भी 15 अगस्त 1947 से पहले ब्रिटिश हुकूमत का गुलाम था। वैसे हमारे देश में स्वाधीनता संग्राम की चिन्गारी अट्ठारहवीं सदी से ही सुलग उठी थी। 

तब से यह संग्राम स्वाधीन होने तक चलता रहा। शायद दुनिया में सबसे लंबे समय तक चलने वाले देश के स्वाधीनता संग्राम में अगणित वीरों ने अपने प्राण न्यौछावर किए थे। उनमें एक खुदी राम बोस भी एक थे। मात्र 18 वर्ष की आयु में ही उन्होंने हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूमा था। खुदी राम बोस पर जज किंग्सफोर्ड पर बम फेंककर मारने की कोशिश करने का आरोप था। 

उनके इस काम में प्रफुल्ल चाकी भी बराबर के सहयोगी थे, लेकिन पकड़े जाने से बचने के लिए उन्होंने आत्महत्या कर ली थी। बाद में उनका सिर धड़ से अलग करके पहचान के लिए खुदीराम बोस के पास पहचान के लिए भेजा गया था। पकड़े जाने पर खुदी राम बोस पर मुकदमा चला और न्याय के नाम पर कई तरह की नौटंकी करने के बाद उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। जब जज ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई तो खुदीराम हंस पड़े। जज ने दोबारा कहा कि सुना तुमने, तुम्हें फांसी की सजा दी गई है। 

इस पर मुस्कुराते हुए कहा कि बस फांसी, तुम लोग और दे भी क्या सकते हो? तब जज ने कहा कि तुम्हें ऊपरी अदालत में अपील करने के लिए एक हफ्ते दिया जाता है। तब खुदीराम ने कहा कि अगर दे सकते हो, तो पांच मिनट दे दे ताकि मैं अपने साथियों के साथ आगे की रणनीति पर चर्चा कर सकूं। बाद में भारत मां के इस लाडले ने हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूम लिया।

No comments:

Post a Comment