बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र
स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती का वास्तविक नाम मुंशीराम विज था। श्रद्धानन्द को प्रखर शिक्षाविद, स्वाधीनता संग्राम सेनानी और आर्य समाज के संन्यासी के रूप में माना जाता है। उनमें धार्मिक कट्टरता तो रंच मात्र भी नहीं थी। स्वामी जी का जन्म 22 फरवरी 1856 को जालंधर जिले में एक खत्री परिवार में हुआ था। उनके पिता ईस्ट इंडिया कंपनी में यूनाइटेड प्रॉविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे। युवावस्था में वह ईश्वर पर विश्वास नहीं करते थे, लेकिन स्वामी दयानंद सरस्वती का प्रवचन सुनने के बाद वह आर्य समाजी हो गए। एक बार की बात है। हकीम अजमल खां अपने साथियों के साथ स्वामी श्रद्धानन्द से मिलने गुरुकुल पहुंचे। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना ही स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती ने की थी।जब अजमल खा गुरुकुल पहुंचे, तो उस समय वहां हवन चल रहा था। आश्रम के लोगों ने अजमल खा और उनके साथियों से कहा कि आप लोग थोड़ा इंतजार करें। इस समय हवन चल रहा है। फुरसत पाते ही स्वामी जी आपसे मुलाकात करेंगे। अजमल खां एक जाने-माने यूनानी चिकित्सक थे और बाद में वह कांग्रेस के पांचवें मुस्लिम अध्यक्ष चुने गए थे। जब हवन खत्म हुआ, तो स्वामी जी ने लोगों से कहा कि खाने का समय है, चलिए पहले भोजन कर लीजिए, फिर बातें करते हैं।
इस पर कुछ लोगों ने कहा कि हमारे नमाज का वक्त हो गया है। हम नमाज के बाद ही भोजन करेंगे। कोई जगह बता दीजिए, जहां नमाज पढ़ सकें। स्वामी जी उन्हें यज्ञशाला में ले गए और बोले, यहीं नमाज पढ़ लीजिए। लोगों ने कहा कि अरे, यह आपकी यज्ञशाला है। हिंदुओं को बुरा लगेगा। स्वामी ने कहा कि यह पूजा स्थल है। तो पूजा ही होगी। चाहे हिंदू यज्ञ करे या मुसलमान नमाज पढ़े।

यह कहानी स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती जी की बड़ी सोच और सच्चे इंसान होने को दिखाती है। उन्होंने कभी धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं किया। उनके लिए पूजा का मतलब ईश्वर को याद करना था, चाहे वह यज्ञ हो या नमाज़।
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